पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/१९९

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आवारा प्रेमी २०२ और स्वय ही तय कियाः "चलो, चलें । " रास्ते में उसने शिकायत के स्वर में प्रारम भर्सना सी करते हुए कहा. " मुझे बताओ तो जरा, तुम इसे कैसे समझायोगे ? मैं चर्च में हमेशा ऊव उठता हूँ परन्तु मुझे वहाँ जाना अच्छा लगता है । वहाँ वे पादरिने कितनी सुन्दर और जवान हैं ? मुझे उनके लिये दुख है । " चर्च में वह दरवाजे पर खड़ा हो गया जहाँ भिखारी और दूसरे गरीब आदमी इकट्ठ हो गये थे । उसकी हरी आँखें प्रार्थना गाने वालियों के एक मएड को गाते देखकर आश्चर्य से फटी सी रह गई । वे पीले चेहरे की नोकीली टोपियाँ पहने बिल्कुल सीधी और सतर खड़ी थीं मानी काले पत्थर में से काट कर बनाई गई हों । वे एक स्वर में गा रही थी और उनकी सुरीली आवाज में एक अद्भुत पवित्रता भरी हुई थी । प्रतिमाओं पर जड़ा हुश्रा सोना चमक रहा था और काँच के शीशों पर मोमवत्तियों का प्रकाश प्रतिविम्बित हो रहा था जो सुनहली तितलियों सा लग रहा था । भिखारियों ने गहरी साँसें ली और अपनी धुंधली आँखों को गुम्बज की अोर कर प्रार्थना पढ़ने लगे । श्राज सप्ताह का अन्तिम दिन था इसलिये घर्च में उपस्थिति बहुत कम थी । केनल यही लोग धाये थे जिनके पास करने को कुछ भी नहीं था और यह नहीं जानते थे कि अपने समय का उपयोग कैसे करें । शाश्का के सामने माला के दाने फिराती हुई एक पादरिन खड़ी थी एक लम्बी चौड़ी औरत जो एक लम्बी सी टोपी लगाये हुए थी । शाश्का जो केवल उसके कन्धों तक पहुचता या अपने पजों पर खड़ा होकर उसके चौड़े मुस और आँखों को श्रोर देखने लगा जो उस टोपी से ढके हुए थे और वह इस प्रकार खदा दुश्रा सृष्टतापूर्वक अपना होठ श्रागे को बढ़ाए हुए टमे घूर रहा था मानो चुम्बन लेना चाहता हो । पादरिन ने धीरे से अपना सिर घुमाया और उसे कनसियों से देखा