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पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/२६१

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दो नन्हें बच्चों की कहानी २५४ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - . . - - - -- - - - - - - - - - - - कहती और भयभीत होकर पोछे की सरफ देखती । यह सब होते हुए भी वह हंस रही थी । “ वह कहाँ है ? " मिश्का हसी के मारे अपना पेट पकहे राहगीरों को धक्के देते हुए भागता रहा जिसके लिये ठसे कई बार करारे समाचे और धक्के खाने पड़े । " रहने दे . . . " तुझे शैतान ले जाय. . . " जरा इसे देखो तो सही । श्रो बेवकूफ ? देखो, फिर वह भाग छूटो ! कभी ऐसी अजीब बात और भी हुई थी ? " कात्का के बारवार गिरने ने उसके उत्साह को और भी बढ़ा दिया । " अव वह हमें कभी भी नहीं पकड़ सकेगा इसलिए धीरे धीरे चल । वह बुरा प्रादमी नहीं है । वह दूसरा , वह जिसने एक बार सीटी बजाई थी । एक वार में भाग रहा था कि अचानक रात के चौकीदार के पेट से जा टक राया । मेरा सिर उसके हथियार से टकरा गया था । " " मुझे याद है । तुम्हारे इतना बड़ा गुमड़ा निकल पाया था , " इतना कहकर काका हंसी के मारे लोट पोट हो गई । " अच्छा, अच्छा , इतना काफी है, " मिश्का ने गम्भीरता के साथ उसे टोका । " मेरी बात सुन । ” दोनों एक दूसरे की वगल में गम्भीर और उत्सुक होकर चलने लगे । " वहाँ मैंने तुझसे झूठ बोला था । उस वदमाश ने मुझे दस न देकर वोस कोपेक दिए थे । और उससे पहले भी मैंने झूठ बोला या , जिससे कि तू यह न कहे कि घर चलने का समय हो गया । श्राज का दिन बहुत बढ़िया रहा । जानती है कि आज कुल कितना मिला ? एक रूवल और पाँच कोपेक । इतना बहुत है । " " काफी है न , " कास्का ने सांस लेते हुए कहा, "इतने से तो तुम एक ) जोड़ा बूट म्बरीद सकते हो - कवाड़िये के यहाँ से । " " बूट हूँ । मैं तेरे लिए बूटों का एक जोड़ा चुरा लाऊँगा । जरा इन्तजार तो कर । कुछ दिनों से एक जोड़े पर मेरी निगाह है । जरा सवर म्व र उन्हें उड़ा दंगा । मगर यह क्या चल होटल चलें , चलेगी न ? "