पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/५९

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मालवा -- -- -- -- -- -- - -- -- -- - -- -- - --- "मुझे वताओ," उसने कहा, "तुम जानती हो कि तुम क्या चाहतीहो ? "काश कि मैं जान सकती ?" मालवा ने गहरी साँस लेकर बहुत धीमी श्रावाज में जवाब दिया। ____ "तो तुम नहीं जानतीं ? यह बुरा है !" सर्योमका ने जोर देते हुए कहा । "मैं हमेशा जानता हूँ कि मुझे क्या चाहिए" और उसने दुख से भरे हुए स्वर में आगे कहा : "मुसीवत तो यह है कि मैं बहुत कम किसी चीज की इच्छा करता हूँ।" ___ "मैं हमेशा कुछ चाहती रहती हूँ," मालवा ने खोई हुई सी आवाज में कहा-"परन्तु वह क्या है मैं नहीं जानती । कभी कभी मैं चाहती हूँ कि मैं वैठ कर समुद्र में दूर चली जाऊँ ..... और फिर किसी से भी न मिलू । और कभी मैं चाहती हूँ कि मैं हरेक श्रादमी का दिमाग फिरा दूं और एक लह की तरह उसे अपने चारों ओर नचाती रहूँ । और मैं उसे देखू और हसू । कभी मैं उन सब के लिए खास तौर से अपने श्राप के लिए इतनी दुखी हो उठती हूँ और कभी मैं उन सब की हत्या कर डालना चाहती हूँ और फिर खुद भी एक भयकर मौत से मर जाना चाहती हूँ कभी मैं उदास हो जाती हूँ और कभी खुश परन्तु अपने चारों ओर मुझे सव श्रादमी सुस्त मालूम पड़ते हैं जैसे लकड़ी के कुन्दे ।" ___"तुम ठीक कह रही हो, श्रादमी अच्छे नहीं हैं," सोझका ने स्वीकार कर लिया । "कई बार मैंने तुम्हें देखा और सोचा है कि तुम न सो मछली और गोश्त हो और न फाख्ता ... परन्तु इतने पर भी तुम में कुछ ऐसी यात है .... तुम दूसरी औरतों की तरह नहीं हो।" ___ "और ईश्वर को इसके लिये धन्यवाद है।" मालवा ने हंसते हुए कहा। उनकी बाई सरफ, बालू के टीले में से चाँद ऊपर निकला और समुद्र । पर अपनी रुपहली चाँदनी बरमाने लगा । विशाल और कोमल चौट आकाश के नीले गुम्बद पर धीरे धीरे तैरने लगा और तारों की चमक इसकी एक सी स्वमिल चाँदनी में पीली होकर गायब होने लगी। मालवा हँसी और बोली