पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/५८

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मालवा "क्या कह रही हो !.........क्या, उसने ? और तुमने रांका नहीं ! श्रोह । श्रोह !" ___ सर्योझका श्राश्चर्य में पड़ गया । उसने मालवा को कनखियो से देसा और कठोरतापूर्वक जीभ से टिटकारी भरी। ___ "मैं उसे कभी नहीं पीटने देती अगर मैं पिटना नहीं चाहती तो," उसने जोश में भर कर कहा। "तो तुमने रोका क्यों नहीं ?" "मैं नहीं चाहती थी।" "इसका मतलब है कि तुम उस बुड्ढे विलोटे से बुरी तरह प्रेम करती हो,” सर्योझका ने मजाक करते हुए कहा और सिगरेट का धुआँ उसको शोर छोड़ा । "मुझे ताज्जुब है । मैने नहीं सोचा था कि तुम इस तरह की औरतों में से हो।" ___मैं तुम में से किसी को भी प्यार नहीं करती," धुश्रा हटाते हुए उसने उदास होकर कहा। "यह झूठ है !" "मैं झूठ क्यो बोलू?" उसने कहा और उसको अावाज से माझा ने अनुभव किया कि वास्तव में वह झूठ नहीं बोल रही थी। "अगर तुम उसे प्यार नहीं करती तो तुमने उसे अपने को मारने की इजाजत कैसे दी ?" सर्योमका ने उससे श्राग्रहपूर्ण स्वर में पूछा। "मैं क्या जानू ?........ तुम मुझे मता क्यों रहे हो ?" "अद्भुत !" सिर हिलाते हुए सोमका ने कहा। दोनों बहुत देर तक चुप बैठे रहे। रात हो गई । बादल श्राकाश में धीरे धीरे रंगरो गुण समुद्र पर महाग बाल रहे थे । लहरों से मरमराहट की ध्वनि पा रही थी। उस पहाड़ी ढाल पर जलती हुई वामिनी की प्राग बुझ गई गी परन्तु मालवा थत्र भी उसी थोर देख रही थी। मयांकका माला गरी शोर देग रहा था।