पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/८२

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विदूपक एक दिन जब मैं एक सर्कस के भीतरी भाग में होकर निकल रहा या मेरी नजर एक विदूपक के खुले हुए कमरे की ओर पड़ी । मैं जिज्ञासावश उसे अच्छी तरह देखने के लिए रुक गया। एक लम्या कोट, नृत्य के समय पहनने वाला टोप और दत्ताने पहने तथा कांग्च में एक पखला देश दवाये यह एक शोशे के सामने सड़ा था। अपने कुशल एवम् सभ्यस्त हायों में बटो अनोखी घदा से अपना टोप उठाए हुए यह उम शीशे में परते हुए सपने प्रतिविम्ब के सामने मुकता हुथा उसे म्वरोच रहा था। ___ शीशे में मेरे पाश्चर्यचकित चेहरे का प्रतिविम्य देखकर यह जल्दी से मेरी भोर मुहा धौर शीशे में अपने चेहरे को थोर उगली फर मुम्कराते हुए योला: फिर यह एक तरफ हट गया । शीने में परसा हुघा टमका प्रमिपिन्च भी गायब हो गया। उसने धीरे से हवा में हाय हिलाया और एक भरे स्वर में कहा में घर नही ! ममझे ?" में टपकी इस पहेली को समझने में श्रममयं रहा और परेशान होर पल दिया । मुझे अपने पीछे टम्पको धीमी हसी नुनाई दी । परन्तु टमी पए में उन विदूपक के विपर में मेरे मन में एक विचित्र और राहल पर देने पालो निसामा उपस हो गई।