पृष्ठ:गोर्की की श्रेष्ठ रचनाएँ.djvu/८९

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विदूषक - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - नोंच- खसोट कर उसे दूसरे को दे देते हैं । वह औरत एक छोटे कुत्ते की तरह बुरी तरह चीख रही थी । वह लड़खड़ाती और मजबूत हाथों द्वारा आगे धकेली जाने पर इधर उधर हिलती हुई उनके उस चक्कर में घूम रही थी । सारा फुटपाथ इस व्यभिचारिणी स्त्री और उन कामुक पुरुषों की इस खींच । तान से भर गया था जिससे वहां निकलने की भी जगह नहीं रही थी । जैसे ही वह विदूषक उनके पास पहुंचा उसने काख में से पुन : अपना बंत निकाला और उन चौकीदारों के चेहरों की ओर इशारा करते हुए उसे तलवार की तरह घुमाने लगा । ___ वे लोग घुर्राते हुए ईटों पर पैर पटकने लगे परन्तु उन्होंने उसके जाने के लिए रास्ता नहीं छोड़ा । फिर उनमें से एक उसके पैरों पर झपटा और जोर से चिल्लाया . " इसे पकड़ लो ! " विदूषक गिर पड़ा । वह औरत , जिसके बाल अस्तव्यस्त हो रहे थे, उसकी बगल में से होती हुई जान बचाकर भागी । भागते हुए उसने अपना पेटीकोट ठीक किया और कर्कश आवाज में गालियां दी . " कुत्त के बच्चे ! हरामी " " उसे बाँध लो " एक आवाज ने भयङ्कर स्वर में प्राज्ञा दी । " पाहा, तो तुम बेंत का इस्तेमाल करोगे, क्यों ? करोगे " विदूषक किसी विदेशी भाषा में बुरी तरह से चीखता हुधा कुछ कहने लगा । वह मुंह के बल फुटपाथ पर पड़ा हुआ पैरों की एड़ियो से उस आदमी की पीठ पर चोट मार रहा था जो उसकी बगल में बैठकर उसके हाथ पीछे की ओर मरोड़ रहा था । " ओहो । शैतान के बच्चे । इसे ऊपर उठाओ और ले जायो ! " मेहराव को उठाए हुए ढले हुए लोहे के खम्बे का सहारा लिए हुए मैंने तीन मूर्तियों को अन्धकार में एक दूसरे से सटे हुए जाते देखा । वे सड़क पर दूर चली जा रही थीं । वे धीरे-धीरे और लड़खड़ाती हुई चल रही थीं जैसे हवा इन्हें श्रागे धकेले लिये जा रही हो ।