दूसरा अध्याय की । १७वीं शताब्दि में अँगरेजों ने डरते-डरते डचों पर हाथ मारा। फ्रेंच और अँगरेजों में स्पर्धा बढ़ी। १८वीं शताब्दि-भर दोनो के युद्ध हुए, जो परस्पर के प्राधान्य के निर्णय के लिये थे। १७५८ में ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित हुआ। १८वीं शताब्दि में अँगरेजों को पंजाब की चिंता न थी, वे मद्रास में फ्रेंचों की गड़बड़ से भयभीत थे । पर मिश्र पर नेपोलियन की चढ़ाई के बाद वैदेशिक संबंध का अँगरेजी रूप ही बदल गया। अफ- ग़ानिस्तान पर अँगरेजी दृष्टि पहुँची, और सर जान मालकम को फारस मिशन लेकर भेजा गया। फारस और अफगानिस्तान से संधियाँ हुईं । तिब्बत-नेपाल से भी संधियां हुई। इस प्रकार भारत पर ग्रेट ब्रिटेन का प्रमुख पक्का हुआ। यह वह समय था, जब देश में अविचार बढ़ गया था। सामाजिकता दिमागी गुलामी में दब गई थी। दिल्ली के सम्राट अपने अत्याचारों का फल भोग रहे थे। मराठों की मार के मारे मुग़ल-तख्त छिन्न-भिन्न हो गया था। राजपूताना मुग़लों का सामना करते-करते चूर-चूर गया था। पूर्वी प्रांतों के सूबे- दार उच्छं खल नवाब बन बैठे थे, और शराब तथा ऐयाशी में डूबे पड़े थे। उनसे प्रजा-रंजन तो दूर, प्रजा-पालन भी न होता था। परंतु प्रजा में इस राजनीतिक विपत्ति ने कुछ गुण उत्पन्न कर दिए थे। वह वीर, स्वावलंबी और सहनशील बन गई थी। फिर उसके जीवन-निर्वाह की विधियाँ बहुत सरल थी । खाद्य
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