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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१०६

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तुलसी की भावुकता में वियोगी और शोकसूचक वाक्य यद्यपि मिले हुए हैं, पर हम चाहें तो उन्हें अलग करके भी देख सकते हैं। शुद्ध वियोग- जब जब भवन बिलोकति सूना । तब तब बिकल होति कौसल्या, दिन दिन प्रति दुख दूना । को अब प्रात कलेऊ मांगत रूठि चलैगो माई ? स्याम-तामरस-नयन स्रवत जल काहि लेहुँ उर लाई ? शोक या करुणा की व्यंजना इस प्रकार के वाक्यों में समझिए-- मृदु मूति सुकुगर सुभाऊ । ताति बाउ तन लाग न काऊ ॥ ते बन बसहि बिपति सब भांती । निदरे कोटि कुलिस सहि छाती ॥ राम सुना दुग्व कान न काऊ । जीवन-तरु जिमि जोगवइ राऊ ।। ते अब फिरत विपिन पदचारी । कंद - मूल • फल- फूल-अहारी ॥ दशरथ के मरण पर यह शोक अपनी पूर्ण दशा पर पहुँच जाता है। उस समय की अयोध्या की दशा के वर्णन में पाठकों को करुणा की ऐसी धारा दिखाई पड़ती है, जिसमें पुरवासियों के साथ वे भी मग्न हो जाते हैं- लागति अवध भयावनि भारी । मानहुँ कालराति अँधियारी ॥ घोर-जंतु-सम पुर-नर-नारी । डरपहि एकहि एक विहारी ॥ घर मसान, परिजन जनु भूना । सुत हित मीन मनहुँ जमदूना ॥ घागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाही । सरित सरोबर देखि न जाहों ॥ विधि कैकयो किरातिनि कीन्हीं । जे ह दव दुसह दसहु दिसि दीन्हों ।। सहि न सके रघुबर-बिरहागो । चले लोग सच ब्याकुल भागो ॥ करि बिलाप सब रोवहिं रानी । महाबिपति किमि जाइ बखानी ॥ सुनि बिलाप दुखहू दुख लागा। धीरजडू कर धीरज भागा ॥ यद्यपि वन-गमन के समय राम इतने बच्चे न थे, पर वात्सल्य दिखाने के लिये गोस्वामीजी ने कौशल्या के मुख से ऐसा ही कहलाया है। -