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गोस्वामी तुलसीदास

गोस्वामीजी द्वारा चित्रित राजकुल का यह शोक ऐसा शोक है जिसके भागी कंवल पुरवासी ही नहीं, मनुष्य मात्र हो सकते हैं; क्योंकि यह एैसे आलंबन के प्रति है जिसके थोड़े से दुःख को भी देख मनुष्य कहलानेवाले मात्र न सही तो मनुध्यता रखनेवाले सब करुणाई हो सकते हैं।

दूसरा करुण दृश्य लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप इस विलाप के भीतर शोक की व्यंजना अत्यंत स्वाभाविक रीति से की गई है। में एक क्षण के लिये सारे नियम-व्रत, सारी दृढ़ता बही जाती सी दिखाई देती है——

जो जनतेउँ बन बंधु-बिछाहू। पिता-वचन मनतेउँ नहि ओहू॥

भाव-दशा का तात्पर्य न समझनेवाले, नीति के नाम पर पाषंड धारण करनेवाले, इसे चरित्र-ग्लानि समझेगे या कहेंगे। पर एसे प्रिय बंधु का शोक, जिसने एक क्षण के लिये भी विपत्ति में साथ न छोड़ा, यदि एक क्षण के लिये सब बातों का विवार छुड़ा देनेवाला न होता तो राम के हृदय की वह कोमलता कहाँ दिखाई पड़ती जो भक्तों की आशा का अवलंबन है ? यह कोमलता, यह सहृदयता सब प्रकार के नियमों से परे है। नियमों से निराश होकर, 'कर्मवाद' की कठोरता से घबराकर, परोक्ष 'ज्ञान' और परोक्ष 'शक्ति मात्र से पूरा पड़ता न देखकर ही तो मनुष्य परोक्ष 'हृदय' की खोज में लगा और अंत में भक्तिमार्ग में जाकर उस परोक्ष हृदय को उसने पाया। भक्त लोगों का ईश्वर अविचल नियमों की समष्टि मात्र नहीं है; वह क्षमा, दया, उदारता इत्यादि का अनंत समुद्र है। लोक में जो कुछ क्षमा, दया, उदारता आदि दिखाई देती है, वह उसी समुद्र का एक बिदु है।

"आत्मग्लानि" का जैसा पवित्र और सच्चा स्वरूप गोस्वामीजी ने दिखाया है, वैसा शायद ही किसी कवि ने कहीं दिखाया हो।