तुलसी की भावुकता १०७ प्रात्मग्लानि का उदय शुद्ध और सात्विक अंत:करण में ही हो सकता है; अत: भरत से बढ़कर उपयुक्त आश्रय उसके लिये और कहाँ मिल सकता है ? आत्मग्लानि नामक मानसिक शैथिल्य या तो अपनी बुराई का अनुभव आप करने से होता है अथवा किसी बुरे प्रसंग के साथ अपना संबंध लोक में दिखाई पड़ने से उत्पन्न हीनता का अनुभव करने से। भरतजी को ग्लानि थी दूसरे प्रकार की, पर बड़ी सच्ची और बड़ी गहरी थी। जिन राम का उन पर इतना गाढ़ा स्नेह था, जिन्हें वे लोकोत्तर श्रद्धा और भक्ति की दृष्टि से देखते आए, उनके विरोधी वे समझे जायें, यह दुःख उनके लिये असह्य था। इस दु:ख के भार से हलके होने के लिये वे छटपटाने लगे, इस घोर आत्मग्लानि को वे हृदय में न रख सके- को त्रिभुवन मोहिं सरिस अभागी । गति असि तोरि मातु जेहि लागी । पितु सुरपुर, रघुबर केतू । मैं केवल सब अनरथ-हेतू ।। धिग मोहि भयउँ बेनु-बन प्रागी । दुसह-दाह-दुख • दूषन - भागी।। वे रह रहकर सोचते हैं कि मैं लाख अपनी सफाई हूँ, पर लोक की दृष्टि में निष्कलंक नहीं दिखाई पड़ सकता- जो पै है। मातु मते महँ हैहै।। तो जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा वैहै ? क्यों है। श्राज होत सुचि सपथनि ? कौन मानिह सांची ? महिमा-मृगी कौन सुकृती की खल-बच-बिसिषन बाँची ? गहि न जाति रसना काहू की, कही जाहि जो सूझै ? दीनबंधु कारुण्यसिंधु बिनु कौन हिये की बूझै ? कैकेयी को सामने पाकर इस ग्लानि के साथ अमर्ष का संयोग हो जाता है। उसकी पवित्रता के सामने माता के प्रति यह अवज्ञा कैसी मनोहर दिखाई पड़ती है- (क) जो पै कुरुचि रही अति तोहीं। जनमत काहे न मारेसि माहीं । बन
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