पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/११२

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11 तुलसी की भावुकता भाकरी की झोरी कधेि, तिनि की सेल्ही बाधं, मूड़ के कमंडलु, खपर किए छोरि के। जोगिनी मुटुंग अँड झुड बनी तापली सी, तीर तीर बैठी सो समर-सरि खोरि कै। सोनित से सानि सानि गूदा खात सतुआ से, प्रेत एक पियत बहोरि घोरि घोरि के। तुलसी बैताल भूत साथ लिए भूतनाथ, हरि हरि हसन हैं हाथ हाथ जोरि के। कवायद की पूरी पाबंदी के साथ बहुत थोड़े में रौद्ररस का उदाहरण देखना हो, तो यह देखिए- माषे लपन कुटिल भई भैहैं । रद-पट फरकत नयन रिसा हैं। ग्घुबसिन मह जहँ कोउ होई । तेहि समाज अस कहै न कोई ॥ इसमें अनुभाव भी है, अमर्ष संचारी भी है। संभव है, कुछ लोगों को "रिसौहैं" शब्द के कारण 'स्वशब्दवाच्यत्व' दोष दिखाई पड़े, पर अनुभाव आदि द्वारा पूर्ण व्यंजना हो जाने पर विशेषण में 'भाव' का नाम आ जाना दोष नहीं कहा जा सकता। युद्धवीर के उदाहरणों से तो सारा लंकाकांड भरा पड़ा है। 'उत्साह' नामक भाव की भी व्यंजना अत्यंत उत्कर्ष को पहुँची हुई है और युद्ध के दृश्य का चित्रण भी बड़ा ही उग्र और प्रचंड है। वीररस का वर्णन-कौशल उन्होंने तीन शैलियों के भीतर दिखाया है-प्राचीन राजपूत-काल के चारणों की छप्पयवाली ओजस्विनी शैली के भीतर; इधर के फुटकरिए कवियों की दंडकवाली शैली के भीतर, और अपनी निज की गीतिकावाली शैली के भीतर। नीचे तीनों का क्रमशः एक एक उदाहरण दिया जाता है- (१) कतहुँ बिटप भूधर उपारि परसेन बरक्खत । कतहुँ बाजि सो बाजि, मदि गजराज करक्खत ।। .