पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/११३

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११२ गोस्वामी तुलसीदास चरन चोट चटकन चकोट अरि उर सिर बज्जत । बिकट कटक बिद्दरत बोर बारिद जिमि गज्जत ।। लंगूर लपेटत पटकि भट "जयति राम, जय" उच्चरत । तुलसीस पवननंदन अटल जुद्ध, क्रुद्ध कौतुक करत ।। (२) दबकि दबारे एक, बारिध में बोरे एक, मगन मही में एक गगन उड़ात हैं। पकरि पछारे, कर • चरन उखारे, एक चीरि फारि डारे, एक मीजि मारे लात हैं। तुलसी बखत राम रावन, बिबुध बिधि, चक्रपानि चंडीपति चंडिका सिहात हैं। बड़े बड़े बानइत बोर बलवान बड़े, जातुधान • जूथप निपाते बातजात हैं। (३) भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति श्रोन सायक कसमसे कोदंड-धुनि अति थंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥ मंदादरी उर-कंप कंपति कमठ भू भूधर से। चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि, देखि कौतुक सुर हँसे । धनुष चढ़ाने के लिये राम और लक्ष्मण का उत्साह और धनुर्भग की प्रचंडता का वर्णन भी अत्यंत वीरोल्लासपूर्ण है। जनक के वचन पर उत्तेजित होकर लक्ष्मण कहते हैं- सुनहु भानु-कुल-कमल-भानु ! जो अब प्रसासन पावौं । का बापुरो पिनाकु ? मेलि गुन मदर-मेरु नवावा ।। देखी निज किंकर को कौतुक, क्यों कोदंड चढ़ावा । लै धावों, भी मृनाल ज्यों तो प्रभु अनुज कहावै ॥ धनुष टूटने पर- डिगति नबि अति गुर्वि, सर्व पब्बै समुद्र सर । ब्याज बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर ॥