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गोस्वामी तुलसीदास

खड़ी की है। फल इसका यह हुआ है कि उनमें अतिशयोक्ति हो अतिशयोक्ति रह गई है; जो कुछ स्वाभाविकता थी, वह जान (अपनी कहिए या उन पुरानी उक्तियों की कहिए) लेकर भागी है। उदाहरण के लिये अभिज्ञान-शाकुंतल में भौरा शकुंतला का पीछा किए हुए है और बार बार उसके मुँह की ओर जाता है-

"सलिल सेसंभमुग्गदो, गोमालिअं उज्झिन वनणं में महुअगे अहिवट्टइ"-

हमारे लाला भिखारीदासजी ने इस उक्ति को पकड़ा और उसके ऊपर यह भारी भरकम ढाँचा खड़ा कर दिया-

आनन है अरबिंद न फूले, अलीगन ! भूले कहा मँडरात हो ?

कीर कहा तोहि बाई भई भ्रम बिंब के आंठन को ललचात है। ?


दासजू ब्याली न, बेनी रची, तुम पापी कलापी कहा इतरात है।?

बोलति बाल न बाजत बीन, कहा सिगरे मृग घेरत जात हौ।?

ऐसे संकट में पड़ी हुई नायिका शायद ही कहीं दिखाई पड़े।

भ्रमर-बाधा तक तो कोई चिता की बात नहीं। पर उसके ऊपर यह शुक-बाधा, मयूर-बाधा और मृग-बाधा देख तो हाथ पर हाथ रखकर बैठे ही रहना पड़ेगा।

बहुत लोगों ने देखा होगा कि भौंरे आदमी के पीछे अकसर लग जाते हैं, कान और मुंह के पास मँडराया करते हैं और हटानं से जल्दी हटते नहीं। इसी बात पर स्त्रियों में यह प्रवाद प्रचलित है कि जब कोई परदेश में होता है, तब उसका सँदेसा कहने के लिये भौरें आकर कान के पास मँडराया करते हैं। अत: इस प्रकार की पुरानी उक्तियों में जो सौंदर्य है, वह हमें अतिशयोक्ति में न दिखाई देकर स्वभावसिद्ध वस्तु द्वारा व्यंग्य हेतूत्प्रेक्षा में दिखाई पड़ता है। जैसे भौरा जो बार बार मुँह के पास जाता है, वह मानों मुख को कमल समझने के कारण।