, 11 तुलसी की भावुकता क्या चीज हैं ? लड़कों के खेल हैं। बालकों या बाल-रुचिवालों का मनोरंजन उनसं होता हो, तो हो सकता है गोस्वामीजी ने अपनी इस परिष्कृत और गंभीर रुचि का परि- चय अलंकारों की योजना में बगबर दिया है। लंकादहन के प्रसंग में जहाँ हनुमान्जी अपनी जलती हुई लंबी पूँछ इधर से उधर घुमाते हैं, वहाँ भी अपनी 'उत्प्रेक्षा' और 'संदेह' को वे इसी स्वभावसिद्ध व्यापार पर टिकाते हैं- बालधी बिसाल बिकराल ज्वाल-जाल मानौ, लंक लीलिबे को काज रसना पसारी है। कधी ब्योम-बीथिज्ञा भरे हैं भूरि धूमकेतु, वीर रस शीर तरवारि सी उधारी है ध्यान से देखिए तो कई एक व्यापार, जो देखने में केवल अलौ- किकत्व-विधायक प्रतीत होते हैं, हेतूत्प्रेक्षा के व्यंग्य से अपना प्रकृत स्वरूप खोल देंगे। पथिक-वेश में राम-लक्ष्मण वन के मार्ग में चले जा रहे हैं (क्षमा कीजिएगा, यह दृश्य हमें बहुत मनाहर लगता है, इसी से बार बार सामने आया करता है)। गोस्वामीजी कहते हैं- जह जहँ जाहिं देव रघुराया । तहैं तहँ मेव करहिं नभ छाया। जिस समय मेघखंड आकाश में बिखरे रहते हैं, उस समय पधिक के मार्ग में कभी धूप पड़ती है कभी छाया । इस छाया पड़ने को देखकर किसी अवसर पर यदि कवि किसी साधारण पुरुष को भी कह दे कि "मेघ भी आपके ऊपर छाया करते चलते हैं तो उसका यह कहना अस्वाभाविक न लगेगा। इस कथन द्वारा जिस प्रताप आदि की व्यंजना इष्ट होगी, वह उत्प्रेक्षा का हेतु हो जायगा। प्राचीन कवियों में इस प्रकार की सुंदर स्वाभाविक उक्तियाँ अकसर मिलती हैं जिनमें से किसी किसी को लेकर और उन पर एक साथ कई प्रौढाक्तियाँ लादकर पिछले खेवे के कवियों ने एक भद्दी इमारत ,
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