पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१३३

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गोस्वामी तुलसीदास

रत ने १है। ऐसा उज्ज्वल अंत:करण एसी घोर कालिमा की छाया का स्पर्श तक सहन नहीं कर सकता। यह छाया किस प्रकार हटे, इसी के यत्न में वे लग जाते हैं। हृदय का यह संताप बिना शांति-शील. समुद्र राम के सम्मुख हुए दूर नहीं हो सकता। वे चट विरह- व्यथित पुरवासियों को लिए दिए चित्रकूट में जा पहुँचते हैं और अपना अंत:करण भरी सभा में लोकादर्श राम के सम्मुख खोलकर रख देते हैं। उस आदर्श के भीतर उसकी निर्मलता देख वे शांत हो जाते हैं और जिस बात से धर्म की मर्यादा रक्षित रहे, उसे करने की दृढ़ता प्राप्त कर लेते हैं। इतना सब क्या लोक-लज्जावश किया ? नहीं, उनके हृदय में सच्ची आत्मग्लानि थी, सच्चा संताप था। यदि ऐसा न होता तो अपनी माता कैकेयी के सामने वे दुःख और क्षाभ न प्रकट करते। यह आत्मग्लानि ही उनकी सात्त्विक वृत्ति की गहनता का प्रमाण है। इस आत्मग्लानि के कारण का अनुसंधान करने पर हम उस तत्त्व तक पहुँचते हैं जिसकी प्रतिष्ठा रामायण का प्रधान लक्ष्य है। आत्मग्लानि अधिकतर अपने किसी बुरे कर्म को सोचकर होती है। भरतजी कोई बुरी बात अपने मन में लाए तक न थे। फिर यह आत्मग्लानि कैसी ? यह ग्लानि अपने संबंध में लोक की बुरी धारणा के अनुमान मात्र से उन्हें हुई थी। लोग प्राय: कहा करते हैं कि अपना मन शुद्ध है, तो संसार के कहने से क्या होता है ? यह बात कंवल साधना की एकांतिक दृष्टि से ठीक है, लोक-संग्रह की दृष्टि नहीं। आत्मपक्ष और लोक-पक्ष दोनों का समन्वय रामचरित का लक्ष्य है। हमें अपनी अंतर्वृत्ति भी शुद्ध और सात्त्विक रखनी चाहिए और अपने संबंध में लोक की धारणा भी अच्छी बनानी चाहिए। जिसका प्रभाव लोक पर न पड़े, उसे मनुष्यत्व का पूर्ण विकास नहीं कह सकते। यदि हम वस्तुत: सात्त्विकशोल हैं, पर