शील-निरूपण और चरित्र-चित्रण १३३ लोग भ्रमवश या और किसी कारण हमें बुरा समझ रहे हैं, ने। हमारी सात्त्विकशीलता समाज के किसी उपयोग की नहीं। अपनी सात्त्विकशीलता अपने साथ लिए चाहे स्वर्ग का सुख भोगने चले जाय, पर अपने पोछे दस-पाँच आदमियों के बीच दस-पाँच दिन के लिये भी कोई शुभ प्रभाव न छोड़ जायेंगे। ऐसे एकांतिक जीवन का चित्रण जिसमें प्रभविष्णुता न हो, रामायण का लक्ष्य नहीं है । रामायण भरत ऐसे पुण्यश्लोक को सामने करता है जिनके संबंध में राम कहते हैं- मिटिहहि पाप-प्रपंच सब अखिल • अमगल - भार । लोक सुजस, परलोक सुख . सुमिरत नान नुम्हार ।। जिन भरत को अयश को इतनी ग्लानि हुई, जिनके हृदय से धर्म-भाव कभी न हटा. उनके नाम के स्मरण से लोक में यश और परलोक में सुख दोनां क्यों न प्राप्त हो ? भरत के हृदय का विश्लेषण करने पर हम उसमें लोक-भीरुता, स्नहोर्द्रता, भक्ति और धर्म-प्रवणता का मेल पाते हैं। राम के आश्रम पर जाकर उन्हें देखते ही भक्ति-वश पाहि ! पाहि : कहते हुए वे पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। सभा के बीच में जब वे अपने हृदय की बात निवेदन करने खड़े होते हैं, तब भ्रातृस्नेह उमड़ आता है, बाल्या. वस्था की बातें आँखां के सामने आ जाती हैं। इतने में ग्लानि श्रा दबाती है और वे पूरी बात भी नहीं कह पाते हैं- पुलकि सरीर सभा भए ठाढ़े । नीरज-नयव नेह • जल बाढ़े ॥ कहब मोर मुनिनाथ विबाहा । एहि ते अधिक कहैं। मैं काहा? मैं जाना निज • नाथ • सुभाऊ । अपराधिहु पर कोह न काऊ ॥ मो पर कृपा सनह बिसेखी । खेलत खुविस न कबहूँ देखी ॥ सिसुपन ने परिहरेउ न संग । कबहुँ न कीन्ह मोर मन-भंगू ॥ मैं प्रभु-कृपा-रीति जिय जोही । हारेहु खेल जितावहि माही ॥
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