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गोस्वामी तुलसीदास

कहकर हँसता है । इस पर उन्हें कुछ भी क्रोध नहीं आता ।अंगद की तरह हैं तव दसन तारिबे लायक" वे नहीं कहते हैं। ऐसा करने से प्रभु के कार्य मे हानि हो सकती थी। अपने मान का ध्यान करके स्वामी का कार्य बिगाड़ना सेवक का कर्त्तव्य नहीं। वे रावण से साफ कहते हैं- मे हि न कछु बांधे कर लाजा : कीन्ह चहै। निज प्रभु कर काजा ॥ जिस प्रकार राम राम थे, उसी प्रकार रावण रावण था। वह भगवान् को उन ललकारनेवालों में से था जिसकी ललकार पर उन्हें आना पड़ा था। बालकांड में गोस्वामीजी ने पहले उनके उन अत्याचारों का वर्णन करके जिनसे पीड़ित होकर दुनिया पनाह माँगती थी, तब राम का अवतार होना कहा है। वह उन राक्षसों का सरदार था जो गाँव जलाते थे, खेती उजाड़ते थे, चौपाए नष्ट करते थे, ऋषियों को यज्ञ आदि नहीं करने देते थे, किसी की कोई अच्छी चीज देखते थे तो छोन ले जाते थे और जिनके खाए हुए लोगों की हड्डियों से दक्खिन का जंगल भरा पड़ा था। चंगेजखाँ और नादिरशाह तो मानों लोगों को उसका कुछ अनुमान कराने के लिये आए थे । राम और रावण को चाहे अहुरमज्द और अह्रमान समझिए, चाहे खुदा और शैतान । फर्क इतना ही समझिए कि शैतान और खुदा की लड़ाई का मैदान इस दुनिया से जरा दूर पड़ता था और राम-रावण की लड़ाई का मैदान यह दुनिया ही थी। ऐसे तामस आदर्श में धर्म के लेश का अनुसंधान निष्फल ही समझ पड़ेगा। पर हमारे यहाँ की पुरानी अक्ल के अनुसार धर्म के कुछ आधार बिना कोई प्रताप और ऐश्वर्य के साथ एक क्षण नहीं टिक सकता, रावण तो इतने दिनों तक पृथ्वी पर रहा । अत. उसमें धर्म का कोई न कोई अंग अवश्य था। वह अंग अवश्य था जिससे शक्ति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। उसमें कष्ट-सहिष्णुता थी।