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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१४२

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शील - निरूपण और चरित्र चित्रण

- शील-निरूपण और चरित्र-चित्रमा वह बड़ा भारी तपस्वी था। उसकी धीरता में भी कोई संदेह नहीं है। भाई, पुत्र जितने कुटुंबी थे, सबकं मारे जाने पर भी वह उसी उत्साह के साथ लड़ता रहा । अब रहे धर्म के सत्य आदि और अंग जो किसी वर्ग की रक्षा के लिये आवश्यक होते हैं। उनका पालन राक्षसे के बीच वह अवश्य करता रहा होगा । उसके विना राक्षस- कुल रह कैसे सकता था ? पर धर्म का पूर्ण भाव लोक-व्यापकत्व में है। यों तो चोर और डाकू भी अपने दल के भीतर परस्पर के व्यवहार में धर्म बनाए रखते हैं। लोक-धर्म वह है जिसके आचरण से पहले तो किसी को दुःख न पहुँचे; यदि पहुँचे भी तो विरुद्ध आचरण करने से जितने लोगों का पहुँचता है, उससे कम लोगों को। सारांश यह कि रावण में केवल अपने लिये और अपने दल के लिये शक्ति अर्जित करने भर को धर्म था, समाज में उस शक्ति का सदुपयोग करनेवाला धर्म नहीं था। रावण पंडित था, तपस्वी था, राजनीति-कुशल था, धीर था, वीर था; पर सब गुणों का उसने दुरुपयोग किया। उसके मरने पर उसका तेज राम के मुख में समा गया। सत् से निकलकर जो शक्ति असत् रूप हो गई थी, वह फिर सत् में विलीन हो गई। अब सामान्य चित्रण लीजिए । राम के साथ लक्ष्मण का शील- निरूपण कुछ हो चुका है। यहाँ केवल यही कहना है कि उनकी उग्रता ऐसी न थी जो करुणा या दया के गहरे अवसरों पर भी कोमलता या आर्द्रता न आने दे। सीता को जब वे वाल्मीकि के आश्रम पर छोड़ने गए थे, तब वे करुणभाव में मग्न थे। उनके मुँह से कोई बात न निकलती थी। वे राम के बड़े भारी आज्ञाकारी थे । वे अपने हृदय के वेग को सहकर भी उनकी आज्ञा का पालन करते थे। क्रोध उन्हें कटु वचन के लिये उभारता था, पर राम का रुख देखते ही वे चुप हो जाते थे । सीता के वनवास की कठोर आज्ञा .