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. शील-निरूपण और चरित्र-चित्रण १४६ अत्यंत कटु हो जाते हैं, तब लक्ष्मण के मुँह से व्यंग्य वचन न निकल- कर अमर्ष के उग्र शब्द निकलने लगते हैं। परशुराम जब कुठार दिखाने लगे, तब लक्ष्मण को भी क्रोध आ गया और वे बोले- भृगुबर ! परसु देखावहु मोही । बिप्र बिचारि बचंउ नृप-द्रोही । मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े । द्विज देवता घहिं के बाड़े ॥ गोस्वामीजी ने लक्ष्मण की इस बाल-वृत्ति को लोक-व्यवहार से बिल्कुल अलग नहीं रखा है, इसे परशुराम की क्रोधशीलता की प्रतियोगिता में रखा है। यह भी अपना लोकोपयोगी स्वरूप दिखा रही है। यदि परशुराम मुनियों की तरह आते. जो शांत और नमाशील होते हैं, तो लक्ष्मण को अवसर न मिलता। रामचंद्रजी . जो तुम अवतहु मुनि की नाई ! पद-रज सिर सिसु धरत गोसाई॥ छमह चूक अनजानत केरी । चहिय विप्र उर कृपा घनेरी ॥