पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१५०

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बाह्य-दृश्य-चित्रण यहाँ तक ता गोस्वामीजी की अंतर्दृष्टि की सूक्ष्मता का कुछ वर्णन हुआ। अब पदार्थों के बाहा स्वरूप के निरीक्षण और प्रत्यक्षी- करण पर भी थोड़ा विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि ये दोनों बातें भी कवि के लिये बहुत ही आवश्यक है। प्रबंधगत पान के चित्रण में जिस प्रकार उसके शील-स्वरूप को, उसके अंतर की प्रवृत्तियों को, प्रत्यक्ष करना पड़ता है, उसी प्रकार उसके अंग-सौष्ठव आदि को भी प्रत्यक्ष करना पड़ता है। यहीं तक नहीं, प्रकृति के नाना रूपों के साथ मनुष्य के हृदय का सामंजस्य दिखाने और प्रतिष्ठित करने के लिये उसे वन, पर्वत, नदी, निर्भर आदि अनेक पदार्थों को ऐसी स्पष्टता के साथ अंकित करना पड़ता है कि श्रोता या पाठक का अंतःकरण उनका पूरा बिंब ग्रहण कर सके। इस संबंध में पहले ही यह कह देना आवश्यक है कि हिंदी कवियों में प्राचीन संस्कृत कवियों का सा वह सूक्ष्म निरीक्षण नहीं है जिससे प्राकृतिक दृश्यां का पूरा चित्र सामने खड़ा होता है। यदि किसी में यह बात थोड़ी- बहुत है, तो गोस्वामी तुलसीदासजी में ही। • दृश्य-चित्रण में केवल अर्थ:ग्रहण कराना नहीं होता, बिंब-ग्रहण कराना भी होता है। यह बिंब-ग्रहण किसी वस्तु का नाम ले लेने मात्र से नहीं हो सकता। आसपास की और वस्तुओं के बीच उसकी परिस्थिति तथा नाना अंगों की संश्लिष्ट योजना के साथ किसी वस्तु का जो वर्णन होगा, वही चित्रण कहा जायगा । "कमल फूले हैं", "भौरे गूंज रहे हैं", "कोयल बोल रही है" यदि कोई इतना ही कह दे तो यह चित्रण नहीं कहा जायगा। 'लहराते हुए नीले जल के ऊपर कहीं गोल हरे पत्तों के समूह के बीच कमलनाल ,