हम अपने साथ जगत् का जो संबंध अनुभव करते हैं उसी के
मूल में भगवान् की सत्ता हमें देखनी चाहिए। “जासों सब नाता
फुरै" उसी को हमें पहचानना चाहिए । जगत् के साथ हमारे
जितने संबंध हैं सब राम के संबंध से हैं-
'नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौ'।
माता-पिता जिस स्नेह से लालन-पालन करते हैं, भाई- बन्धु, इष्ट-मित्र जिस स्नेह से हमारा हित करते हैं, उसे राम ही का स्नेह समझना चाहिए।
जिन जिन वृत्तियों से लोक की रक्षा और रंजन होता है उन सब का समाहार अपनी परमावस्था को पहुँचा हुआ जहाँ दिखाई पड़े, वहाँ भगवान् की उतनी कला का पूर्ण प्रकाश समझकर जितनी से मनुष्य को प्रयोजन है- अनंत पुरुषोत्तम को उतनी मर्यादा के भीतर देखकर जितनी से लोक का परिचालन होता है-सिर झुकाना मनुष्य होने का परिचय देना है, पूरी आदमियत का दावा करना है। इस व्यवहार-क्षेत्र से परे, नामरूप से परे जो ईश्वरत्व या ब्रह्मत्व है वह प्रेम या भक्ति का विषय नहीं, वह चिंतन का विषय है। वह इस प्रकार लक्षित नहीं कि हमारे भावों का, हमारी मनोवृत्तियों का परम लक्ष्य हो सके। अत: अलक्ष्य का बहाना करके जितना लक्ष्य है उसकी ओर भी ध्यान न देना धर्म से भागना है।
गोस्वामीजी पूरे लोकदर्शी थे । लोक-धर्म पर आघात करनेवाली जिन बातों का प्रचार उनके समय में दिखाई पड़ा उनकी सूक्ष्म दृष्टि उन पर पूर्ण रूप से पड़ी। कबीर आदि द्वारा प्रवर्तित निर्गुण पंथ की लोक-धर्म से विमुख करनेवाली वाणी का किस खरेपन के साथ उन्होंने विरोध किया इसका वर्णन "लोक-धर्म" के अंतर्गत किया जायगा।
भक्ति में बड़ी भारी शर्त है निष्कामता की। सच्ची भक्ति में लेन-देन का भाव नहीं होता । भक्ति के बदले में उत्तम गति मिलेगी,