इस भावना को लेकर भक्ति हो ही नहीं सकती। भक्त के लिये
भक्ति का आनंद ही उसका फल है। वह शक्ति, सौंदर्य और शील के
अनंत समुद्र के तट पर खड़ा होकर लहरें लेने में ही जीवन का परम
फल मानता है । तुलसी इसी प्रकार के भक्त थे। कहते हैं कि वे एक
बार वृंदावन गए थे। वहाँ किसी कृष्णोपासक ने उन्हें छेड़कर कहा-
"आपके राम तो बारह कला के ही अवतार हैं। आप श्रीकृष्ण की
भक्ति क्यों नहीं करते जो सोलह कला अवतार हैं ?" गोस्वामीजी
बड़े भोलेपन के साथ बोले- "हमारे राम अवतार भी हैं, यह हमें
आज मालूम हुआ। राम विष्णु के अवतार हैं इससे उत्तम फल
या उत्तम गति दे सकते हैं, बुद्धि के इस निर्णय पर तुलसी राम से
भक्ति करने लगे हो, यह बात नहीं है । राम तुलसी को अच्छे लगते
हैं, उनके प्रेम का यदि कोई कारण है तो यही है। इसी भाव को
उन्होंने इस दोहे में व्यंजित किया है-
जो जगदीस तो अति भलो, जौ महीस तो भाग।
तुलसी चाहत जनम भरि राम-चरन-अनुराग ॥
तुलसी को राम का लोक-रंजक रूप वैसा ही प्रिय लगता है जैसा चातक को मेघ का लोक-सुखदायी रूप ।
अब तक जो कुछ कहा गया है उससे यह सिद्ध है कि शुद्ध भारतीय भक्ति-मार्ग का 'रहस्यवाद' से कोई संबंध नहीं। तुलसी पूर्ण रूप में इसी भारतीय भक्ति-मार्ग के अनुयायी थे अत: उनकी रचना को रहस्यवाद कहना हिंदुस्तान को अरब या विलायत कहना है। कृष्णभक्ति-शाखा का स्वरूप आगे चलकर अवश्य ऐसा हुआ जिसमें कहीं कहीं रहस्यवाद की गुंजाइश हुई। अपने मूल रूप में भागवत संप्रदाय भी विशुद्ध रहा। श्रीकृष्ण का लोक- रक्षक और लोक-रंजक रूप गीता में और भागवत पुराण में स्फुरितहै । पर धीरे धीरे वह स्वरूप आवृत होता गया और प्रेम का आलं-