१५२ गोस्वामी तुलसीदास जराजर्जरितः पद्मः शीर्ण केसरकर्णिकैः। नाल शेषैहि मध्वस्तैर्न भाति कमलाकरः ।। और तुलसीदासजी के लक्ष्मण राम से यह सुन रहे हैं कि- गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई ।। इतना होने पर भी गोस्वामीजी सच्चे सहृदय भावुक भक्त थे; इस जगत् के 'सियाराममय' स्वरूपों से वे अपने हृदय को अलग कैसे रख सकते थे ? जब कि उनके सारे स्नेह-संबंध राम के नाते से थे, तब चित्रकूट आदि रम्य स्थलों के प्राते उनके हृदय गूढ़ अनुराग कैसे न होता, उनके रूप की एक एक छटा की और उनका मन कैसे न आकर्षित होता ? जिस भूमि को देखने के लिये उत्कं- ठित होकर वे अपने चित्त से कहते थे- अब चित चेत चित्रकूटहि चलु । भूमि बिलाकु राम-पद-अंकित बन बिनाकु रघुबर-बिहार-थलु ॥ उसके रूप की ओर वे कैसे ध्यान न देते ? चित्रकूट उन्हें कैसे अच्छा न लगता ? गीतावली में उन्होंने चित्रकूट का बहुत विस्तृत वर्णन किया है। यह वर्णन शुष्क प्रथा-पालन नहीं है, उस भूमि की एक एक वस्तु के प्रति उमड़ते हुए अनुराग का उद्गार है। उसमें कहीं कहीं प्रचलित सस्कृत कवियों का सूक्ष्म निरीक्षण और संश्लिष्ट योजना पाई जाती है; जैसे- सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु-रँगमगे सृगनि । मनहुँ आदि अंभोज बिराजत सेवित सुर-मुनि-भृगनि ।। सिखर-परस घन घटहिं मिलति बग-पाति सो छबि कबि बरनी। आदि बराह बिहरि बारिधि मना रट्यो है दसन धरि धरनी ॥ जल-जुत बिमल सिलनि मलकत नभ बन-प्रतिबिंब तरंग। मानहुँ जग रचना बिचित्र बिलसति बिराट अँग अंग॥
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