बाह्य-दृश्य-चित्रण १५३ , मंदाकिनिहि मिजत झरना झरि झरि भरि भरि जल आछे । तुलसी सकल सुकृत सुख लागे मानौ राम-भगति के पाछे । इस दृश्य की संश्लिष्ट योजना पर ध्यान दीजिए। इसमें याही नहीं कह दिया गया है कि 'बादल छाए हैं। और 'बगलों की पाँति उड़ रही है। मंद मंद गरजते हुए काले बादल गेरू से रेंगे ( लाल ) शृंगों से लगे दिखाई देते हैं और उन शिखरस्पर्शी घटाओं से मिली श्वेत बक-पंक्ति दिखाई दे रही है। केवल 'जलद' न कह- कर उसमें वर्ण और ध्वनि का भी विन्यास किया गया है। वर्ण के उल्लेख से" द' पद में बिंब-ग्रहण कराने की जो सामर्थ्य आई थी, वह रक्ताभ शृंग के योग में और भी बढ़ गई और बगलों की श्वेत पंक्ति ने मिलकर ना चित्र को पूरा ही कर दिया। यदि ये तीनों वस्तुएं-मेघमाला. शृंग और बक-पंक्ति–अलग अलग पड़ी होती, उनकी संश्लिष्ट योजना न की गई होती, तो कोई चित्र ही कल्पना में उपिस्थत न होता। तीनों का अलग अलग अर्थ-ग्रहण मात्र हो जाता, बिब-ग्रहण न होना। इसी प्रकार काली शिलाओं पर फैले हुए जल के भीतर आकाश और वनस्थली का प्रतिबिब देखना भी सूक्ष्म निरीक्षण सूचित करता है। अलंकारों पर 'वाह वाह' न कहने पर शायद अलंकार-प्रेमी लोग नाराज हो रहे हों; उनसे अत्थत नम्र निवेदन है कि यहाँ विषय दूसरा है। अब यहाँ प्रश्न यह होता है कि गोस्वामीजी ने सारा वर्णन इसी पद्धति से क्यों नहीं किया। गोस्वामीजी हिंदी-कवियों की परंपरा से लाचार थे। कहीं कहीं इस प्रकार की संश्लिष्ट योजना और सूक्ष्म निरीक्षण का जो विधान दिखाई पड़ता है, उसे एसा समझिए कि वह उनकी भावमग्नता के कारण आप से आप हो गया है। तुलसीदासजी के पहले तीन कैंडे के कवि हिंदी में हुए थे -एक तो वीरगाथा गानेवाले पुराने चारण; दूसरे प्रेम की कहानी कहनेवाले
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