बट गोस्वामी तुलसीदास बकुल्ल कदंब पनस रसाल । कुसुमित तरु-निकर, कुरव-तमाल ॥ माना बिबिध बंष धरे छैल-जूथ । बिच बीच लता-ललना-बरूथ ।। पनबानक निझर, अलि उपंग । बोलत पारावत मानी डफ मृदंग ।। गायक सुक कोकिल, झिल्लि ताल । नाचत बहु भांति बरहि मराल ॥ पर उनकी यह उत्प्रेक्षा भी उल्लास-सूचक है। इसी प्रकार भाग- वत के दृष्टांत-उदाहरण-लेकर उन्होंने किष्किंधाकांड में वर्षा और शरत् का वर्णन किया है जिससे प्रस्तुत वस्तु और व्यापार दृष्टांतों के सामने दबे से हैं। श्रोता या पाठक का ध्यान वर्ण्य वस्तुओं की ओर जमने नहीं पाता। फिर भी जहाँ जहाँ स्थल-वर्णन का अवसर आया है, वहाँ वहाँ उन्होंने वस्तुओं और व्यापारों का प्रचुर उल्लेख करते हुए विस्तृत वर्णन किया है। केशवदास के समान नहीं किया है कि पंचवटी का प्रसंग आया तो बस "सब जाति फटी दुख की दुबरी" करके और अपना यह श्लेष-चमत्कार दिखाकर चलते बने- सोभत दंडक की रुचि बनी । भौतिन भांतिन सुंदर घनी ।। सेव बड़े नृप की जनु लसै । श्रीफल भूरि भाव जहँ लसै ॥ बेर भयानक सी प्राति लगै । अर्क-समूह जहाँ जगमगै॥ अब कहिए, इसमें "श्रीफल", "बेर" और "अर्क" पदों के श्लेष के सिवा और क्या है ? चित्रण क्या, यह तो वर्णन भी नहीं है। इसमें "हृदय” का तो कहीं पता ही नहीं है। क्या "वर" को देखकर भयानक प्रलयकाल की ओर ध्यान जाता है और प्राक को देख प्रलयकाल के अनेक सूर्यों की ओर ? इससे तो साफ झलकता है कि पंचवटी के वन-दृश्य से केशव के हृदय का कुछ भी सामंजस्य नहीं है। उस दृश्य से उनकं हृदय में किसी प्रकार के भाव का उदय नहीं हुआ। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि वाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों ने वृक्षों आदि के उल्लेख में देश का पूरा ध्यान रखा
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