. . बाह्य-दृश्य-चित्रण १५७ है; जैसे, हिमालय के वर्णन में भूर्ज, देवदारु आदि और दक्षिण के वर्णन में एला, लवंग, ताल, नारिकेल, पुगीफल आदि का उल्लेख है। गोस्वामीजी ने भी देश का ध्यान रखा है। चित्रकूट के वर्णन में कहीं एला, लवंग, पुंगीफल का नाम वे नहीं लाए हैं। पर केशवदासजी मगध के पुराने जंगल के वर्णन में, वृक्षों के जो जो नाम याद आए हैं, उन्हें अनुप्रास की बहार दिखाते हुए जोड़ते चले गए हैं- तरु तालीस तमाल ताल हिताल मनाहर । मंजुल बंजुल तिलक लकुच कुल नारिकेल वर ।। एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहै। सारी सुक कुल कलित चित्त कोकिल अलि मोहै ।। कंशवदासजी ने इस बात का कुछ भी विचार न किया कि एला, लवंग और पुंगीफल अयोध्या और मिथिला के बीच के जंगलों में होते भी हैं या नहीं। भिन्न भिन्न व्यापारों में तत्पर मनुष्य की मुद्रा का चित्रण भी रूप-प्रत्यक्षीकरण में बहुत प्रयोजनीय है। पर यह हम गोस्वामीजी को छोड़ और किसी में पाते ही नहीं । और कवियों ने केवल अनु- भव के रूप में भ्रू-भंग आदि का वर्णन किया है; पर लक्ष्य साधने, किसी का मार्ग देखने आदि व्यापारों में जो स्वाभाविक मुद्रा मनुष्य की होती है, उसके चित्रण की ओर उनका ध्यान नहीं गया है । गोस्वामीजी ने ऐसा चित्रण किया है। देखिए, आखेट के समय मृग को लक्ष्य करके बाण खींचते हुए रामचंद्र का कैसा चित्र उन्होंने सामने खड़ा किया है- सुभग सरासन-सायक जोरे । खेलत राम फिरत मृगया बन बसती सो मृदु मूरति मन मोरे । जा मुकुट सिर सारस-नयननि गौहैं तकत सुभौह सकोरे ।
पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१५७
दिखावट