11 १५८ गोस्वामी तुलसीदास मारीच के पीछे लक्ष्य साधते हुए राम की छवि देखिए- जटा-मुकुंद, कर सर-धनु, संग मरीच ! चितवनि बमति कनखियनु अँखियन बीच ॥ एक और चित्र देखिए। शबरी की झोपड़ी की ओर राम आनेवाले हैं । वह उनके लिये मीठे मीठे फल इकडे करके कभी भीतर जाती है, कभी बाहर आकर भी पर हाथ रखे हुए मार्ग की ओर ताकती है- अनुकूल अंबक अंब ज्यों निज डिभ हित सब आनिकै । सुदर स्नेह-सुधा सहस जनु सरस राखे सानिक। छन भवन छन बाहर बिलेोकति पंथ भू पर पानि कै। निशाना साधने में भी सिकोड़ना और रास्ता देखने में माथे पर हाथ रखना कैसी स्वाभाविक मुद्राएँ हैं। दृश्यों को सामने रखने में गोस्वामीजी ने अत्यंत परिमार्जित रुचि का परिचय दिया है। वे ऐसे दृश्य सामने नहीं लाए हैं जो भद्दे या कुरुचि-पूर्ण कहे जा सकें। उदाहरण के लिये भोजन का दृश्य लीजिए। 'मानस' में दो प्रसंगों में इसके अवसर पाए हैं- राम की बाल-लीला के प्रसंग में और विवाह के प्रसंग में। दोनों अवसरों पर उन्होंने भोजन के दृश्य का विस्तार नहीं किया है। दशरथ भोजन कर रहे हैं; इतने में- धूसर धृरि भरे तनु पाए । भूपति बिहँसि गोद बैठाए ।। भोजन करत चपल चित इन-उत अवसरु पाइ । भाजि चल किलकत मुख दधि-ओदन लपटाइ ॥ भोजन का यह उल्लेख बाल-क्रीड़ा और बाल-चपलता का चित्रण करने के लिये है। पकवानों के नाम गिनाते हुए भोजन के वर्णन का विस्तार उन्होंने नहीं किया है। इसी प्रकार विवाह के अवसर पर भी भोजन का वर्णन नहीं है। किसी भद्दो रुचिवाले को यह बात खटकी और उसने उनके नाम पर रामकलेवा बना डाला। -
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