पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

" लता - अलंकार-विधान १६७ जायगा । इसी प्रकार देखिए, तट पर से खड़े होकर देखनेवाले को गंगा-यमुना के संगम की छटा कैसी दिखाई पड़ती है. सोहै सितासित को मिलिबो तुलसी हुलसै हिय हेरि हिलोरे । माना हरे तृन चारु चरै बगरे सुरधेनु के धौल कलारे ॥ एक और सुंदर 'उत्प्रेक्षा' लीजिए- भवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ। विकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद-पटल बिलगाइ । इस उत्प्रेक्षा में मेघ-खंड के बीच से प्रकट होते हुए चंद्रमा का मनोरम दृश्य लाया गया है जो प्रस्तुत दृश्य की मनोहरता के अनु- भव को बढ़ानेवाला है । नेत्र शीतल करने का गुण भी राम-लक्ष्मण और चंद्रमा दोनों में है 'रूपकातिशयोक्ति' का प्रयोग बहुत से कवियों ने इस ढंग से किया है कि वह एक पहली सी हो गई है। पर गोस्वामीजी ने उसे अपनी प्रबंध-धारा के भीतर बड़े स्वाभाविक ढंग से बैठाया है- एस ढंग से बैठाया है कि वह अलंकार जान ही नहीं पड़ती, क्योंकि उसमें अप्रस्तुत भी बन के भीतर प्रस्तुत समझ जा सकते है । सीता के वियोग में वन वन फिरते हुए राम कहते है- खंजन, सुक, कपोत, मृग, मीना । मधुप-निकर काकिला प्रबोना ।। कुंद-कली, दाडिम, दामिनी । सरदरमल, ससि, अहि-भामिनी ।। वरुण-पाश मनोज, धनु, हंसा । गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥ श्रीफल, कमल, कदलि हरखाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं।। गोस्वामीजी की प्रबंध-कुशलता विलक्षण है जिससे प्रकरण-प्राप्त वस्तुएँ अलंकार-सामग्री का काम भी देती चलती हैं। इससे होता यह है कि अलंकारों में कृत्रिमता नहीं आने पानी। रंगभूमि में इधर राम आते हैं. उधर सूर्य का उदय होता है। इस बात पर कवि को यह अपहृति सूझती है-