सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६६ गोस्वामी तुलसीदास और आलंकारिक वस्तु में बिंब-प्रतिबिंब भाव हो अर्थात् अप्रस्तुत ( कवि द्वारा लाई हुई ) वस्तु प्रस्तुत वस्तु से रूप-रंग आदि में मिलती-जुलती हो और उससे उसी भाव के उत्पन्न होने की संभावना हो जो प्रस्तुत वस्तु से उत्पन्न हो रहा हो। अब देखिए, तुलसी- दासजी के प्रयुक्त अलंकार कहाँ तक इन बातों को पूरा करते हैं। सीता के जयमाल पहनाने की शोभा देखिए- सतानंद-सिष सुनि पाय परि पहिराई माल सिय पिय-हिय, सोहत सो भई है। मानस तें विकसि बिसाल सु-तमाल पर मानहुँ मराज-पाति बैठी बनि गई है । इस उत्प्रेक्षा में श्रीराम के शरीर और तमाल में श्यामता के विचार से ही बिब-प्रतिबिब भाव है, प्राकृति का सादृश्य नहीं है; पर मराल-पाँति और जयमाल में वर्ण और आकृति दोनों के सादृश्य से बिब-प्रतिबिब भाव बहुत पूर्णता को पहुँचा हुआ है। पर सबसे बढ़कर बात तो यह कि तमाल पर बैठी मराल-पंक्ति का नयना- भिरामत्व कैसे प्राकृतिक क्षेत्र से, सौंदर्य संग्रह करके, गोस्वामीजी मेल रखने के लिये लाए हैं। इसी ढंग की एक और उत्प्रेक्षा लीजिए। रणक्षेत्र में रामचंद्र- जी के दूर्वादल-श्याम शरीर पर रक्त की जो छींटे पड़ो हैं, वे कैसी लगती हैं- सेोनित-छींटि-छटान जटे तुलसी प्रभु साहैं महाबि छूटी। माना मरकत-सैल बिसाल में फैलि चली बर बीरबहूटी ॥ इसमें भी रक्त की छींटों और बीरबहूटियों में वर्ण और प्राकृति दोनों के विचार से बिब-प्रतिबिब है, पर शरीर और मरकत-शिला में केवल वर्ण का सादृश्य है। पर आकृति का ब्योरा अधिक न मिलना कोई त्रुटि नहीं है; क्योंकि प्रेक्षक कुछ दूर पर खड़ा माना .