पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१७७

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अलंकार-विधान 2 इसी प्रकार जहाँ उत्तरकांड में अयोध्या की विभृति का वर्णन है, वहाँ कहा गया है- "मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं"। इन दोनों उदाहरणों में 'भ्रम' अलंकार नहीं है। अलंकार में भ्रम के विषय की विशेषता होती है, भ्रांत की नहीं। भ्रांत की विशेषता में तो पागलों का भ्रम भी अलंकार हो जायगा। सीता का जो भ्रम है, वह विरह की विह्वलता के कारण और बंदरों का जो भ्रम है, वह पशुत्व के कारण । इस प्रकार का भ्रम अलंकार नहीं, यह बात आचार्यो' ने स्पष्ट कह दी है- मर्मप्रहारकृत-चित्तविक्षेप-विरहादिकृतोन्मादादिजन्यभ्रान्तेश्च नालंकारत्वम् । -उद्योतकार । संदेह के संबंध में भी यही बात समझिए जो ऊपर कही गई है। तीनों में सादृश्य आवश्यक है। संदेह तो अलंकार तभी होगा जब उसको लाने का मुख्य उद्देश्य रूप, गुण, क्रिया का उत्कर्ष (अपकर्ष भी ) सूचित करना होगा। ऐसा संदेह वास्तविक भी हो सकता है, पर वहाँ अलंकारत्व कुछ दबा सा रहेगा। जैसे, "की मैनाक कि खग-पति होई” में जो संदेह है, वह कवि के प्रबंध- कौशल के कारण वास्तविक भी है तथा आकार की दीर्घता और वेग की तीव्रता भी सूचित करता है। पर नीचे लिखा उदाहरण यदि लीजिए तो उसमें कुछ भी अलंकारत्व नहीं है- की तुम हरिदासन महँ कोई । मोरे हृदय प्रीति अति होई ॥ की तुम राम दीन-अनुरागी । श्राए मोहिं करन बड़-भागी ॥ अलंकार का विषय समाप्त करने के पहले दो चार बातें कह देना आवश्यक है। पहली बात तो यह है कि सब अलंकार आने पर भी गोस्वामीजी की रचना कहीं ऐसी नहीं है कि पहले अलंकार का पता लगाया जाय तब अर्थ खुले। जो अलंकार का १२