१७८ गोस्वामी तुलसीदास नाम तक नहीं जानते, वे भी अर्थ-ग्रहण करके पूरा आनंद उठाते एक बिहारी हैं कि पहले 'नायिका' का पता लगाइए, फिर अलंकार निश्चित कीजिए, और तब दोनों की सहायता से प्रसंग की ऊहा कीजिए. तब जाकर कहीं अर्थ से भेंट हो। गोस्वामीजी की इस अद्भुत विशेषता का कारण है उनकी अपूर्व प्रबंध-पटुता जिसके बल से उन्होंने अपनी प्रबंध-धारा के साथ, अधिकतर प्रकरण-प्राप्त वस्तुओं को ही लेकर, अलंकारों को इस सफाई से मिलाया है कि जोड़ मालूम नहीं पड़ता। ध्यान देने की दूसरी बात यह है कि गोस्वामीजी श्लेष, यमक, मुद्रा आदि खेलवाड़ों के फेर में एक तरह से बिल्कुल नहीं पड़े हैं। इसका मतलब यह नहीं कि शब्दालंकार का सौंदर्य उनमें नहीं। अोज, माधुर्य आदि का विधान करनेवाले वर्ण-विन्यास का आश्रय उन्होंने लिया है। उनकी रचना शब्द-सौंदर्य-पूर्ण है। अनुप्रास के थे अनुप्रास किस ढंग से लाना चाहिए, उनसे यह सीखकर यदि बहुत से पिछले फुटकरिए कवियों ने अपने कवित्त- सवैए लिखे होते, तो उनमें वह भद्दापन और अर्थ-न्यूनता न आने पाती। तुलसी की रचना में कहीं कहीं एक ही वर्ण की आवृत्ति सारे चरण में यहाँ से वहाँ तक चली गई है, पर प्रसंग-बाह्य या भरती का शब्द एक भी नहीं। दो नमूने बहुत होंगे- (क) जग जाँचिए कोउ न, जाँचिए जौ, जिय जाँचिए जानकी-जानहि रे । जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ जो जारति जोर जहानहि रे । ( ख ) खल-परिहास होहि हित मोरा । काक कहहि कल-कंठ कठोरा ॥ और उदाहरण ढूँढ़ लीजिए, कुछ भी कष्ट न होगा, जहाँ हूँढ़िएगा, वहीं मिलेंगे। श्लेष, परिसंख्या जैसे कृत्रिमता लानेवाले अलंकारों का व्यव- हार भी इनकी रचनाओं में नहीं मिलता। इस प्रसिद्ध उदाहरण । तो वे बादशाह
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