पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१८० गोस्वामी तुलसीदास कहिए, काशी की इन वस्तुओं का सींग, पूंछ, गल-कंबल आदि के साथ कहाँ तक सादृश्य है ! अनुगामी धर्म, वस्तु-प्रतिवस्तु धर्म, उपचरित धर्म, बिब-प्रतिबिंब रूप आदि ढूँढ़ने से कहाँ तक मिल सकते हैं ? 'टा' और 'करनघंटा' में तो केवल शब्दात्मक सादृश्य ही है। इसी प्रकार विनय-पत्रिका में अर्द्धनारीश्वर शिव को वसंत बनाया है और गीतावली में चित्रकूट की वनस्थली को होली का पर फिर भी यही कहना पड़ता है कि इसमें गोस्वामीजी का दोष नहीं; यह एक वर्ग विशेष की रुचि का प्रसाद है। इतनी विस्तृत रचना के भीतर दो-चार ऐसे स्थलों से उनके रुचि-सौंदर्य में अणु-मात्र भी संदेह नहीं उत्पन्न हो सकता। स्वाँग।