पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१७९

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अलंकार-विधान १७६ को छोड़, हम समझते हैं, परिसंख्या का शायद ही कोई और उदा- हरण इनकी रचनाओं भर में मिले- दंड जतिन कर, भेद जहँ नर्तक नृत्य-समाज । जितहु मनहि अस सुनिय जग रामचंद्र के राज ॥ शब्द-श्लेष के उदाहरण भी ढूँढ़ने पर चार ही पाँच जगह मिलते हैं; जैसे- (क) साधु-चरित सुभ मरिस कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू॥ (ख) बहुरि सक्र-सन बिनवौ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ॥ (ग) रावन-सिर - सरोज- बनचारी । चलि रघुबीर-सिलीमुख-धारी ॥ (घ ) सेवा-अनुरूप फल देन भूप कूप ज्यों, बिहूने गुन पथिक पिया जात पथ के । इसी प्रकार 'यसक' का व्यवहार भी कम ही मिलता है। जैसे- आदि कृपान कृपा न हूँ, पितु काल-कराल बिलोकि न भागे । राम कहाँ ?' 'सब ठाउँ है', 'खंभ में ', 'ही', सुचि हाँक नृकेहरि जागे ।। गोस्वामीजी को रामचरित की ओर सब प्रकार के लोगों को आकर्षित करना था; जो जिस रुचि से आकर्षित हो, उसी से सही। इससे उन्होंने अलंकार की भद्दी रुचि रखनेवालों को भी निराश नहीं किया और इस तरह के भी कुछ अलंकार कहे जिस तरह का विनय-पत्रिका में यह 'सांग रूपक' है- इय सहित सनेह देह भरि कामधेनु कलि कासी । मरजादा चहुँ ओर चरन बर संवत सुर-पुर-बासी ॥ तीरथ सब सुभ अंग, रोम सिवलिंग अमित अबिनासी । अंतर प्रयन अयन भल थन, फल बन्छ बेद-बिस्वासी ॥ गट कंबल बरुना बिभाति, जनु लूम ल सति सरिता सी। लालदिनेस त्रिलोचन लोचन, करनघंट घंटा सी॥