पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१८४

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। भाषा पर अधिकार १८५ ( क ) मांगि के खैबो मसीद को साइबो, लैबे को एक न दैवे को दोज । (ख) मन-मोदकनि कि भूख बुताई ? पर सबसे बड़ी विशेषता गोस्वामीजी की है भाषा की सफाई और वाक्य-रचना की निर्दोषता जो हिंदी के और किसी कवि में ऐसी नहीं पाई जाती। यही दो बातें न होने से इधर के श्रृंगारी कवियों की कविता और भी पढ़े-लिखे लोगों के काम की नहीं हुई। हिंदी का भी व्याकरण है, 'भाषा' में भी वाक्य-रचना के नियम हैं, अधिकतर लोगों ने इस बात को भूलकर कवित्त-सवैयों के चार पैर खड़े किए हैं। गोस्वामी जी के वाक्यों में कहीं शैथिल्य नहीं है, एक भी शब्द ऐसा नहीं है जो पाद-पूर्त्यर्थ रखा हुआ कहा जा सके ऐसी गठी हुई भाषा किसी की नहीं । उदाहरण देने की न जगह ही है, न उतनी आवश्यकता ही। सारी रचना इस बात का उदा- हरण है। एक ही चरण में वे बहुत सी बातें इस तरह कह जाते हैं, कि न कहीं से शैथिल्य आता है न न्यूनपदत्व- परुष बचन अति दुसह सत्रन सुवि तेहि पावक न दहैं।गो। विगत मान सम-सीतल मन पर गुन, नहि देष, कहाँगो ॥ कहीं कहीं तो ऐसा है कि पद भर में यहाँ से वहाँ तक एक ही वाक्य चला गया है, पर क्या मजाल कि अंत तक एक सर्वनाम में भी त्रुटि आने पावे- जेहि कर अभय किए जन भारत बारक बिबस नाम टेरे। जेहि कर-कमल कठोर संभु-धनु भंजि जनक-संसय मेव्यो। जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों परम प्रीति केवट भेट्यो। जेहि कर-कमज कृपालु गीध कहँ उदक देइ विज लोक दियो। जेहि कर बालि बिदारि दास-हित कपि-कुल-पति सुग्रीव कियो आए सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों। जेहि कर गहि सर-चाप असुर हति अभय-दान देवन दीन्हों। 11