कुछ खटकनेवाली बातें इतनी विस्तृत रचना के भीतर दो-चार खटकनेवाली बातें भी मिलती हैं, जिनका संक्षेप में उल्लेख मात्र यहाँ कर दिया जाता है- (१) ऐतिहासिक दृष्टि की न्यूनता। इस दोष से तो शायद ही कोई बच सकता हो। किसी की रचना हो, उसके समय का आभास उसमें अवश्य रहेगा । इसी से ऋषियों के आश्रमों और विभीषण के दरवाजे पर गोस्वामीजी ने तुलसी का पौधा लगाया है और राम के मस्तक पर रामानंदी तिलक। राम वैदिक समय में थे। उनके समय में न तो रामानंदी तिलक की महिमा लोगों को मालूम हुई थी और न तुलसी की। राम के सिर पर जो चौगोशिया टोपी रखी है, उसका तो कोई ख्याल ही नहीं। ( २ ) भक्ति-संप्रदायवालों की इधर की कुछ भक्तमाली कथाओं पर गोस्वामीजी ने जो आस्था प्रकट की है, वह उनके गौरव के अनुकूल नहीं है। जैसे- अधिरो, अधम, जड़, जाजरो-जरा जवन, सूकर के सावक ढका ढकेल्यो मग में। गिरयो हिय हहरि, "हराम हो, हराम हन्यो", हाय हाय करत परीगो काल-फंग में॥ तुलसी बिसोक है त्रिलोक-पति-लोक गयो, नाम के प्रताप, बात बिदित है जग में । ) इसी नाम-प्रताप को राम के प्रताप से भी बड़ा कहने का (राम ते अधिक राम कर नामा) प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। सच्ची भक्ति से कोई मतलब नहीं, टीका लगाकर केवल 'राम राम' रटना बहुत से आलसी अपाहिजों का काम हो गया। एक धनाढ्य महंत
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