कभी फटकार भी देते थे एक साधु को बार बार 'अलख अलख' कहते सुनकर उनसे न रहा गया। वे बोल उठे——
तुलसी अलखहि का लखै, राम नाम जपु नीच।
इस 'नीच' शब्द से ही उनकी चिड़चिड़ाहट का अंदाज कर लीजिए। आडंबरियों और पाषंडियों ने उन्हें कुछ चिड़चिड़ा कर दिया था। इससे प्रकट होता है कि उनके अंत:करण की सबसे प्रधान वृत्ति थी सरलता. जिसकी विपरीतता वे सहन नहीं कर सकते थे। अत: इस थोड़ी सी चिड़चिड़ाहट को भी सरलता के अंतर्गत लेकर संक्षेप में हम कह सकते हैं कि गोस्वामीजी का स्वभाव अत्यंत सरल, शांत, गंभीर और नम्र था। सदाचार की तो वे मूर्ति थे। धर्म और सदाचार को दृढ़ न करनेवाले भाव को—चाहे वह कितनाही ऊँचा हो—वे भक्ति नहीं मानते थे। उनकी भक्ति वह भक्ति नहीं है जिसे कोई लंपटता या विलासिता का प्रावरण बना सके।
यद्यपि गोस्वामीजी निरभिमान थे, पर लोभवश या भयवश अपनी हीनता प्रकट करने को वे सच्चा दैन्य' नहीं समझते थे, आत्म- गौरव का ह्रास समझते थे। राम की शरण में जाकर वे निर्भय हो चुके थे, राम से याचना करके वे अयाचमान हो चुके थे, अत:——
किरपा जिनकी कछु काज नहीं, न अकाज कछू जिनके मुख मोरे।
उनकी प्रशंसा या खुशामद करने से क्यों जाते? उनकी प्रशंसा करना वे सरस्वती का गला दबाना समझते थे——
कीन्हें प्राकृत-जन-गुन-गाना। सिर धुनि गिरा लागि पछिताना॥
इस समझ के अनुसार वे बराबर चले। उन्होंने कहीं किसी
ग्रंथ में अपने समय के किसी मनुष्य की प्रशंसा नहीं की है। केवल सच्चे स्नेह के नाते, उत्तम आचरण पर रीझकर, उन्होंने अपने मित्र टोडर के संबंध में चार दोहे कहे हैं