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गोस्वामी तुलसीदास

भारतभूमि में उत्पन्न होना वे गौरव की बात समझते थे। इस भूमि में और अच्छे कुल में जन्म को वे अच्छे कर्मों के साधन का भगवान् की कृपा से मिला हुआ अच्छा अवसर मानते थे-

(क ) भलि भारत भूमि, भले कुल जन्म, समाज सरीर भलो बहिकै।

जो भजै भगवान सयान सोई तुलसी हठ चातक ज्यो गहिकै।

ख) दियो सुकुल जनम सरीर सुदर हेतु जो फल चारे को।

जो पाइ पंडित परम पद पावत पुरारि मुरारि को ॥

यह भरतखंड समीप सुरसरि, थल भलो, संगति भली।

तेरी कुमति कायर कलपबल्ली चहति बिष-फल फली।।

गोस्वामीजी लोकदर्शी भक्त थे अतः मर्यादा की भावना उनमें हम बराबर पाते हैं। राम के साथ अपने घनिष्ठ संबंध का अनुभव करते हुए भी वे उनके सामने अपनी बात कहने अदब कायदे के साथ जाते हैं। 'माधुर्य भाव' की उपासना से उनकी उपासना की मान- सिक पद्धति स्पष्टं अलग दिखाई पड़ती है। 'विनय-पत्रिका' में वे अपनी ही अवस्था का निवेदन करने बैठे हैं पर वहाँ भी वे लोक-प्रतिनिधि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। वे कलि की अनीति और अत्याचार से रक्षा चाहते हैं जिनसे केवल वे ही नहीं, समस्त लोक पीड़ित है। उनकी मंगलाशा के भीतर जगत् की मंगलाशा छिपी हुई है। वे अपने को लोक से असंबद्ध करकं नहीं देखते। उन्हें उनके आराध्य राम किसी एकांत कोने में नहीं मिलते; भरे दरबार में, खुले संसार में मिलते हैं। 'विनय-पत्रिका' रामचंद्रजी के दरबार में गुजरने- वाली अर्जी है जिसकी तहरीर जबरदस्त है। यह अर्जी योही बाला बाला नहीं भेज दी जाती है। कायदे के खिलाफ काम करने- वाले-मर्यादा का भंग करनेवाले-आदमी तुलसीदासजी नहीं हैं। बीच के देवताओं और मुसाहबों के पास से होती हुई तब हुजूर में गुजरती है। वहाँ पहले से सधे हुए लोग मौजूद हैं।