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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/२७

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लोक- धर्म

कर्म, ज्ञान और उपासना लोक-धर्म के ये तीन अवयव जन- समाज की स्थिति के लिये बहुत प्राचीन काल से भारत में प्रतिष्ठित हैं। मानव-जीवन की पूर्णता इन तीनों के मेल के बिना नहीं हो सकती। पर देश-काल के अनुसार कभी किसी अवयव की प्रधा- नता रही, कभी किसी की। यह प्रधानता लोक में जब इतनी प्रबल हो जाती है कि दूसरे अवयवों की ओर लोक की प्रवृत्ति का अभाव सा होने लगता है, तब साम्य स्थापित करने के लिये.शेष अवयवों की ओर जनता को आकर्षित करने के लिये कोई न कोई महात्मा उठ खड़ा होता है। एक बार जब कर्म-कांड की प्रबलता हुई तब याज्ञवल्क्य के द्वारा उपनिषदों के ज्ञानकांड की ओर लोग प्रवृत्त किए गए। कुछ दिनों में फिर कर्मकांड प्रबल पड़ा और यज्ञों में पशुओं का बलिदान धूमधाम से होने लगा। उस समय भगवान् बुद्धदेव का अवतार हुआ जिन्होंने भारतीय जनता को एक बार कर्मकांड से बिलकुल हटाकर अपने ज्ञान-वैराग्य-मिश्रित धर्म की। ओर लगाया। पर उनके धर्म में 'उपासना' का भाव नहीं था, इससे साधारण जनता के हृदय की तृप्ति उससे न हुई और उपासना- प्रधान धर्म की स्थापना फिर से हुई।

पर किसी एक अवयव की अत्यंत वृद्धि से उत्पन्न विषमता हटाने के लिये जो मत प्रवर्तित हुए, उनमें उनके स्थान पर दूसरे अवयव का हद से बढ़ना स्वाभाविक था। किसी बात की एक हद पर पहुंचकर जनता फिर पीछे पलटती है और क्रमश: बढ़ती हुई दूसरी हद पर जा पहुँचती है। धर्म और राजनीति दोनों में यह उलट-फेर, चक्रगति के रूप में, होता चला आ रहा है। जब जन-