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लोक- धर्म


का उपहास, वेदांत के दो-चार प्रसिद्ध शब्दों का अनधिकार प्रयोग आदि सब कुछ था; पर लोक को व्यवस्थित करनेवाली वह मर्यादा न थी जो भारतीय आर्य-धर्म का प्रधान लक्षण है। जिस उपासना- प्रधान धर्म का जोर बुद्ध के पीछे बढ़ने लगा, वह उस मुसलमानी राजत्वकाल में प्राकर- -जिसमें जनता की बुद्धि भी पुरुषार्थ के ह्रास के साथ साथ शिथिल पड़ गई थी-कर्म और ज्ञान दोनों की उपेक्षा करने लगा था। ऐसे समय में इन नए पंथों का निकलना कुछ आश्चर्य की बात नहीं। इधर शास्त्रों का पठन-पाठन कम लोगों में रह गया था, उधर ज्ञानी कहलाने की इच्छा रखनेवाले मूर्ख बढ़ रहे थे जो किसी "सतगुरु के प्रसाद" मात्र से ही अपने का सर्वज्ञ मानने के लिये तैयार बैठे थे। अत: ‘सतगुरु' भी उन्हीं में से निकल पड़ते थे जो धर्म का कोई एक अंग नोचकर एक ओर भाग खड़े होते थे और कुछ लोग झाँझ-खँजड़ी लेकर उनके पीछे हो लेते थे। दंभ बढ़ रहा था। "ब्रह्म ज्ञान बिनु नारि-नर कहहिं न दूसरि बात ।" ऐसे लोगों ने भक्ति को बदनाम कर रखा था । 'भक्ति' के नाम पर ही वे वेदशास्त्रों की निंदा करते थे, पंडितों को गालियाँ देते थे और आर्य-धर्म के सामाजिक तत्त्व को न समझकर लोगों में वर्णाश्रम के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर रहे थे। यह उपेक्षा लोक के लिये कल्याणकर नहीं । 'जिस समाज से बड़ों का आदर, विद्वानों का सम्मान, अत्याचार का दमन करनेवाले शुरवीरों के प्रति श्रद्धा इत्यादि भाव उठ जायँ, वह कदापि फल फूल नहीं सकता; उसमें अशांति सदा बनी रहेगी।

'भक्ति' का यह विकृत रूप जिस समय उत्तर भारत में अपना स्थान जमा रहा था, उसी समय भक्तवर गोस्वामीजी का अवतार हुआ जिन्होंने वर्ग-धर्म, आश्रम-धर्म, कुलाचार, वेदविहित कर्म, शास्त्र-प्रतिपादित ज्ञान इत्यादि सबके साथ भक्ति का पुन: सामंजस्य