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गोस्वामी तुलसीदास


स्थापित करके आर्य धर्म को छिन्न-भिन्न होने से बचाया। ऐसे सर्वांगदर्शी लोक-व्यवस्थापक महात्मा के लिये मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् रामचंद्र के चरित्र से बढ़कर अवलंब और क्या मिल सकता था ! उसी आदर्श चरित्र के भीतर अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल से उन्होंने धर्म के सब रूपों को दिखाकर भक्ति का प्रकृत आधार खड़ा किया। जनता ने लोक की रक्षा करनेवाले प्राकृतिक धर्म का मनोहर रूप देखा। उसने धर्म को दया, दाक्षिण्य, नम्रता, सुशीलता, पितृभक्ति, सत्यव्रत, उदारता, प्रजापालन, क्षमा आदि में ही नहीं देखा बल्कि क्रोध, घृणा, शोक, विनाश और ध्वंस आदि में भी उसे देखा । अत्याचारियों पर जो क्रोध प्रकट किया जाता है, असाध्य दुर्जनों के प्रति जो घृणा प्रकट की जाती है, दीन-दुखियों को सतानेवालों का जो संहार किया जाता है, कठिन कर्त्तव्यों के पालन में जो वीरता प्रकट की जाती है, उसमें भी धर्म अपना मनो- हर रूप दिखाता है। जिस धर्म की रक्षा से लोक की रक्षा होती है-जिससे समाज चलता है-वह यही व्यापक धर्म है। सत् और असत्, भले और बुरे दोनों के मेल का नाम संसार है। पापी और पुण्यात्मा, परोपकारी और अत्याचारी, सज्जन और दुर्जन सदा से संसार में रहते आए हैं और सदा रहेंगे।

सुगुन छीर, अवगुन जल, ताता । मिलइ रचइ परपंच बिधाता ॥

किसी एक सर्प को उपदेश द्वारा चाहे कोई अहिंसा में तत्पर कर दे किसी डाकू को साधु बना दे, क्रूर को सज्जन कर दे; पर सर्प, दुर्जन और क्रूर संसार में रहेंगे और अधिक रहेंगे। यदि ये उभय पक्ष न होंगे तो सारे धर्म और कर्त्तव्य की, सारे जीवन-प्रयत्न की इतिश्री हो जायगी। यदि एक गाल में चपत मारनेवाला ही न रहेगा तो दूसरा गाल फेरने का महत्त्व कैसे दिखाया जायगा ? प्रकृति के तीनों गुणों की अभिव्यक्ति जब तक अलग अलग है, तभी