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लोक-धर्म


हो गई।नारायण वासुदेव के मंगलमय रूप का साक्षात्कार हुआ। जन-समाज पाशा और आनंद से नाच उठा। भागवत धर्म का उदय हुआ। भगवान् पृथ्वी का भार उतारने और धर्म की स्थापना करने के लिये बार बार आते हुए साक्षात् दिखाई पड़े। जिन गुणों से लोक की रक्षा होती है, जिन गुणों को देख हमारा हृदय प्रफुल्ल हो जाता है, उन गुणों को हम जिसमें देखें, वही 'इष्टदेव' है——हमारे लिये वही सबसे बड़ा है——

तुलसी जप तप नेम व्रत सब सबही ते होइ।
लहै बड़ई देवता 'इष्ट देव' जब होइ॥

इष्टदेव भगवान् के स्वरूप के अंतर्गत केवल उनका दया-दाक्षिण्य ही नहीं, असाध्य दुष्टों के संहार की उनकी अपरिमित शक्ति और लोक-मर्यादा-पालन भी है।

भक्ति का यह मार्ग बहुत प्राचीन है। जिसे रूखे ढंग से 'उपा- सना' कहते हैं, उसी ने व्यक्ति की रागात्मक सत्ता के भीतर प्रेम-परिपुष्ट होकर 'भक्ति' का रूप धारण किया है। व्यष्टिरूप में प्रत्येक मनुष्य के और समष्टिरूप में मनुष्य-जाति के सारे प्रयत्नों का लक्ष्य स्थिति-रक्षा है। अत: ईश्वरत्व के तीन रूपों में स्थिति-विधायक रूप ही भक्ति का आलंबन हुआ। विष्णु या वासुदेव की उपासना ही मनुष्य के रतिभाव को अपने साथ लगाकर भक्ति की परम अवस्था को पहुँच सकी। या यों कहिए कि भक्ति की ज्योति का पूर्ण प्रकाश वैष्णवों में ही हुआ।

तुलसीदास के समय में दो प्रकार के भक्त पाए जाते थे। एक तो प्राचीन परंपरा के रामकृष्णोपासक जो वेदशास्त्रज्ञ तत्त्वदर्शी आचार्यों द्वारा प्रवर्तित संप्रदायों के अनुयायी थे; जो अपने उपदेशों में दर्शन, इतिहास, पुराण आदि के प्रसंग लाते थे। दूसरे वे जो समाज-व्यवस्था की निदा और पूज्य तथा सम्मानित व्यक्तियों के