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गोस्वामी तुलसीदास


उपहास द्वारा लोगों को आकर्षित करते थे। समाज की व्यवस्था में कुछ विकार आ जाने से ऐसे लोगों के लिये अच्छा मैदान हो जाता है। समाज के बीच शासकों, कुलीनों, श्रीमानों, विद्वानों, शूरवीरों, आचार्यों इत्यादि को अवश्य अधिकार और सम्मान कुछ अधिक प्राप्त रहता है; अत: ऐसे लोगों की भी कुछ संख्या सदा रहती है जो उन्हें अकारण ईर्ष्या और द्वेष की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें नीचा दिखाकर अपने अहंकार को तुष्ट करने की ताक में रहते हैं। अत:उक्त शिष्ट वर्गों में कोई दोष न रहने पर भी उनमें दोषोद्भावना करके कोई चलते पुरज़े का आदमी ऐसे लोगों को संग में लगाकर 'प्रवर्तक', 'अगुवा', 'महात्मा' आदि होने का डंका पीट सकता है। यदि दोष सचमुच हुआ तो फिर क्या कहना है। सुधार की सञ्चो इच्छा रखनेवाले दो-चार होंगे तो ऐसे लोग पचीस। किसी समुदाय के मद, मत्सर, , ईर्ष्या, द्वेष और अहंकार को काम में लाकर 'अगुआ' और 'प्रवर्तक' बनने का हौसला रखनेवाले समाज के शत्रु हैं। योरप में जो सामाजिक अशांति चली आ रही है, वह बहुत कुछ ऐसे ही लोगों के कारण। पूर्वीय देशों की अपेक्षा संघ-निर्माण में अधिक कुशल होने के कारण वे अपने व्यवसाय में बहुत जल्दी सफलता प्राप्त कर लेते हैं। योरप में जितने लोक-विप्लव हुए हैं, जितनी राजहत्या, नरहत्या हुई है, सबमें जनता के वास्तविक दुःख और क्लेश का भाग यदि था तो विशेष जन-समुदाय की नीच वृत्तियों का भाग। 'क्रांतिकारक', 'प्रवर्तक' आदि कहलाने का उन्माद योरप में बहुत अधिक है। इन्हीं उन्मादियों के हाथ पड़कर वहाँ का समाज छिन्न-भिन्न हो रहा है। टअभी थोड़े दिन हुए, एक मेम साहब पति-पत्नी के संबंध पर व्या- ख्यान देती फिरती थीं कि कोई आवश्यक नहीं कि स्त्री पति के घर में ही रहे।