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गोस्वामी तुलसीदास


अलौकिक सिद्धियों की व्यर्थ आशा का प्रचार कर रहे थे। तीनों वर्गों के द्वारा साधारण जनता के लोक-धर्म पर आरूढ़ होने की संभावना कितनी दूर थी, यह कहने की आवश्यकता नहीं। आज जो हम फिर झोपड़ों में बैठे किसानों को भरत के "भायप भाव" पर, लक्ष्मण के त्याग पर, राम की पितृभक्ति पर पुलकित होते हुए पाते हैं, वह गोस्वामीजी के ही प्रसाद से। धन्य है गार्हस्थ्य-जीवन में धमालोक-स्वरूप रामचरित और धन्य हैं उस आलोक को घर घर पहुँचानेवाले तुलसीदास। व्यावहारिक जीवन धर्म की ज्योति से एक बार फिर जगमगा उठा——उसमें नई शक्ति का संचार हुआ। जो कुछ भी नहीं जानता, वह भी यह जानता है कि——

जे न मित्र दुख होहि दुखारी। तिनहिं बिलोकत पातक भारी॥

स्त्रियाँ और कोई धर्म जानें, या न जानें, पर वे वह धर्म जानती हैं जिससे संसार चलता है। उन्हें इस बात का विश्वास रहता है कि——

बृद्ध, रोग-बस, जड़, धनहीना। अंध बधिर क्रोधी प्रति दीना।।
एसेहु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

जिसमें बाहुबल है उसे यह समझ भी पैदा हो गई है कि दुष्ट और अत्याचारी 'पृथ्वी के भार' हैं; उस भार को उतारनेवाले भगवान् के अवतार हैं और उस भार को उतारने में सहायता पहुँचाने-वाले भगवान के सच्चे सेवक हैं। प्रत्येक देहाती लठैत 'बजरंगबली' की जयजयकार मनाता है-कुंभकर्ण की नहीं। गोस्वामीजी ने 'रामचरित-चिंतामणि" को छोटे-बड़े सबके बीच बाँट दिया जिसके प्रभाव से हिंदू-समाज यदि चाहे——सच्चे जी से चाहे——तो सब कुछ प्राप्त कर सकता है।

भक्ति और प्रेम के पुटपाक द्वारा धर्म को रागात्मिका वृत्ति के साथ सम्मिश्रित करके बाबाजी ने एक ऐसा रसायन तैयार किया