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लोक-धर्म


वैरागियों का सुधार चाहे उससे उतना न हुआ हो, पर परोक्ष रूप में साधारण गृहस्थ जनता की प्रवृत्ति का बहुत कुछ संस्कार हुआ। दक्षिण में रामदास स्वामी ने इसी लोक-धर्माश्रित भक्ति का संचार करके महाराष्ट्र-शक्ति का अभ्युदय किया। पीछे से सिखों ने भी लोक-धर्म का आश्रय लिया और सिख-शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। हिंदू-जनता शिवाजी और गुरु गोविदसिंह को राम-कृष्षण के रूप में और औरंगजेब को रावण और कंस के रूप में देखने लगी। जहाँ लोक ने किसी को रावण और कम के रूप में देखा कि भगवान् के अवतार की संभावना हुई।

गोस्वामीजी ने यद्यपि भक्ति के साहचर्य से ज्ञान, भी निरूपण किया है और पूर्ण रूप से किया है, पर उनका सबसे अधिक उपकार गृहस्थों के ऊपर है जो अपनी प्रत्येक स्थिति में उन्हें पुकारकर कुछ कहते हुए पाते हैं और वह 'कुछ' भी लोक-व्यवहार के अंतर्गत है, उसके बाहर नहीं। मान-अपमान से परे साधक होना संतों के लिये तो वे "खल के बचन संत सहैं जैसे” कहते हैं, पर साधारण गृहस्थों के लिये सहिष्णुता की मर्यादा बाँधते हुए कहते हैं कि “कतहुँ सुधाइहु तें बड़ दोपू"। साधक और संसारी दोनों के मार्गों की और वे संकेत करते हैं। व्यक्तिगत सफल के लिये जिसे लोग 'नीति' कहते हैं, सामाजिक आदर्श की सफलता का साधक होकर वही 'धर्म' हो जाता है।

सारांश यह कि गोस्वामीजी से पूर्व तीन प्रकार के साधु समाज के बीच रमते दिखाई देते थे। एक तो प्राचीन परंपरा के भक्त जो प्रेम में मग्न होकर संसार को भूल रहे थे, दूसरे वे जो अनधिकार ज्ञानगोष्ठी द्वारा समाज के प्रतिष्ठित आदर्शों के प्रति तिरस्कार-बुद्धि उत्पन्न कर रहे थे; और तीसरे वे जो हठयोग,* रसायन आदि द्वारा


  • गोरख जगायो नाग, भगति भगाया लोग, निगम नियोग ते, सो केलि ही छरो सो है।

——कवितावली।