पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/४६

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मंगलाशा

मंगलाशा शुद्ध आत्म-पक्ष के विचार से दुःखवाद स्वीकार करते हुए भी, साधकों के लिये ज्ञान द्वारा उस दु:ख की निवृत्ति मानते हुए भी, लोक कल्याण के पूरे प्रयासी थे। लोक के मंगल की आशा से उनका हृदय परिपूर्ण और प्रफुल्ल था। इस आशा का आधार थी वह मंगलमयी ज्योति जो धर्म के रूप में जगत् की प्रातिभासिक सत्ता के भीतर आनंद का आभास देती है और उसकी रक्षा द्वारा सत् का-अपने नित्यत्व का-बोध कराती है। लोक की रक्षा 'सत्' का आभास है, लोक का मंगल 'परमानंद' का आभास है। इस व्यावहारिक 'सत्' और 'आनंद' का प्रतीक है "रामराज्य" जिसमें उस मर्यादा की पूर्ण प्रतिष्ठा है जिसके उल्लंघन से इस सत् और आनंद का आभास भी व्यवधान में पड़ जाता है। पर यह व्यवधान सब दिन नहीं रह सकता। अंत में सत् अपना प्रकाश करता है, इस बात का पूर्ण विश्वास तुलसीदासजी ने प्रकट किया है। इस व्यवधान-काल का निरीक्षण लोक की वर्तमान दशा के रूप में वे अत्यंत भय और आकुलता के साथ इस प्रकार करते हैं- प्रभु के बचन बेद-बुध-सम्मत मम मूरति महिदेव मई है। तिन्हकी मति, रिस, राग, मोह, मद लोभ लालची लीलि लई है ॥ राज-समाज कुसाज, कोटि कटु कल्पत कलुष कुचाज नई है। नीतिप्रतीति प्रीति-परिमिति पति हेतुवाद हठि हेरि हई है। श्राश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद मरजाद गई है। मजा पतित पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है। सांति सत्य सुभ रीति गई घटि, बढ़ी कुरीति कपट-कलई है। सीदत साधु, साधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है ।।