५० गोस्वामी तुलसीदास सूचक है। मूर्ख जनता के इस माहात्म्य-प्रदान पर न भूलना चाहिए, यह बात गोस्वामीजी साफ साफ कहते हैं- तुलसी भेड़ी की धंसनि, जड़ जनता-सनमान । उपजन ही अभिमान भी, खोवत मूढ़ अपान ।। जड़ जनता के सम्मान का पात्र वही होगा जो उसके अनुकूल कार्य करेगा। ऐमा कार्य लोक-मंगलकारी कभी नहीं हो सकता। जनता के किसी भाग की दुर्वृत्तियों के सहारे जो व्यवस्था स्थापित होगी, उसमें गुण, शील, कला-कौशल, बल बुद्धि के असामान्य उत्कर्ष की संभावना कभी नहीं रहेगी, प्रतिभा का विकास कभी नहीं होगा। रूस से भारी भारी विद्वानों और गुणियों का भागना इस बात का आभास दे रहा है। अल्प शक्तिवालों की अहंकार-वृत्ति को तुष्ट करनेवाला 'साम्य' शब्द ही उत्कर्ष का विरोधी है। उत्कर्ष विशेष परिस्थिति में होता है। परिस्थिति-विशेष के अनुरूप किसी वर्ग में विशेषता का प्रादुर्भाव ही उत्कर्ष या विकास कहलाता है, इस बात को आजकल के विकासवादी भी अच्छी तरह जानते हैं। इस उत्कर्ष का विरोधी साम्य जहाँ हो, उसे हमारे यहाँ के लोग 'अंधेर नगरी' कहते आए हैं। गोस्वामीजी ने कलिकाल का जो चित्र खींचा है, वह उन्हीं के समय का है। उसमें उन्होंने 'साधारण धर्म' और 'विशेष धर्म' दोनों का ह्रास दिखाया है। साधारण धर्म के ह्रास की निंदा तो सबको अच्छी लगती है, पर विशेष धर्म के ह्रास की निंदा-समाज-व्यवस्था के उल्लंघन की निदा-आजकल की अव्यवस्था को अपने महत्त्व का द्वार समझनेवाले कुछ लोगों को नहीं सुहाती। वे इन चौपाइयों में तुलसीदासजी की संकीर्ण-हृदयता देखते हैं- निराचार जो नु तिपथ त्यागी । कलिजुग सोइ ग्यानी बैरागी । सूद्र द्विजन्ह उपदेसहि ग्याना । मेलि जनेऊ लेहि कुदाना । .
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