लोक-नीति और मर्यादावाद 4? जे बरनाधम तेलि कुम्हारा । स्वपच किरात कोल कलवारा। नारि मुई घर संपति नासी । मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी ॥ ते बिप्रन सन पवि पुजावहिं । उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥ सूद करहिं जप तप व्रत दाना । बैठि बरासन कहहिं पुराना ॥ पर इसी प्रसंग में गोस्वामीजी के इस कथन को वे बड़े आनंद से स्वीकार करते हैं- विप्र निरच्छर लोलुप कामी । निराचार सठ बृषली-स्वामी ॥ गोस्वामीजी कट्टर मादावादी थे, यह पहले कहा जा चुका है। मर्यादा का भंग वे लेक के लिये मंगलकारी नहीं समझते थे। मर्यादा का उल्लंघन देखकर ही बलरामजी वरासन पर बैठकर पुराण कहते हुए सृत पर हल लेकर दौड़े थे। शूद्रों के प्रति यदि धर्म और न्याय का पूर्ण पालन किया जाय, तो गोस्वामोजी उनके कर्म को ऐसा कष्टप्रद नहीं समझते थे कि उसे छोड़ना आवश्यक हो। यह पहले कहा जा चुका है कि वर्ण-विभाग केवल कर्म-विभाग नहीं है, भाव-विभाग भी है। श्रद्धा, भक्ति, दया, क्षमा आदि उदात्त वृत्तियों के नियमित अनुष्ठान और अभ्यास के लिये भी वे समाज में छोटी बड़ी श्रेणियों का विधान आवश्यक समझते थे। इन भावों के लिये आलंबन ढूँढ़ना एकदम व्यक्ति के ऊपर ही नहीं छोड़ा गया था। इनके आलंबनों की प्रतिष्ठा समाज ने कर दी थी। ममाज में बहुत से ऐसे अनुन्नत अंत:करण के प्राणी होते हैं, जो इन आलंबनों को नहीं चुन सकते । अत: उन्हें स्थूल रूप से यह बता दिया गया कि अमुक वर्ग यह कार्य करता है, अत: वह तुम्हारी दया का पात्र है; अमुक वर्ग इस कार्य के लिये नियत है, अत: वह तुम्हारी श्रद्धा का पात्र है। यदि उच्च वर्ग का कोई मनुष्य अपने धर्म च्युत है, तो उसकी विगर्हणा, उसके शासन और उसके सुधार का भार राज्य के या उसके वर्ग के ऊपर है, निम्न वर्ग के लोगों पर नहीं ।
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