लोक-नीति और मर्यादावाद ५३ की उच्छृखलता, बड़ों के प्रति उनकी अवज्ञा चुपचाप कैसे देख सकते थे ? ब्राह्मण और शूद्र, छोटे और बड़े के बीच कैसा व्यवहार दे उचित समझते थे, यह चित्रकूट में वशिष्ठ और निषाद के मिलने में देखिए- प्रेम पुलकि केवट कहि नामू । कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू ।। रामसखा ऋषि बरबस भंटा । जनु महि लुठत सनेह समेटा ।। केवट अपनी छोटाई के विचार से वशिष्ट ऐसे ऋषीश्वर को दूर ही से प्रणाम करता है, पर ऋषि अपने हृदय की उच्चता का परिचय देकर उसे बार बार गले लगाते हैं । वह हटता जाता है. वे उसे 'बरबस' भेटते हैं। इस उच्चता से किस नीच को द्वेष हो सकता है ? यह उच्चता किसे खलनेवाली हो सकती है काक भुशुंडिवाले मामले में शिवजी ने शाप देकर लोकमत की रक्षा की और काक भुशुंडि के गुरु ने कुछ न कहकर साधुमत* का अनुसरण किया। साधुमत का अनुसरण व्यक्तिगत साधन है, लोक- मत लोकशासन के लिये है। इन दोनों का सामंजस्य गोस्वामीजी की धर्मभावना के भीतर है । चित्रकूट में भरत की ओर से वशिष्ठजी जब सभा में प्रस्ताव करने उठते हैं, तब राम से कहते हैं- भरत-बिनय सादर सुनिय करिय विचार बहोरि । करब साधुमत, लोकमत नृपनय निगम निचोरि ॥ गोस्वामीजी अपने राम या ईश्वर तक को लोकमत के वशीभूत कहते हैं- लोक एक आंति को, त्रिलोकनाथ लोकबस, आपना न सोच, स्वामी-सोच ही सुखात हौं । ? ,
- उमा संत के इहै बड़ाई । मंद करत जो करहिं भलाई ॥