जातीय पक्ष- ५२ गोस्वामी तुलसीदास अत: लोक-मर्यादा की दृष्टि से निम्न वर्ग के लोगों का धर्म यही है कि उस पर श्रद्धा का भाव रखें, न रख सकें तो कम से कम प्रकट करते रहें। इसे गोस्वामीजी का Social discipline समझिए। इसी भाव से उन्होंने प्रसिद्ध नीतिज्ञ और लोक-व्यवस्थापक चाणक्य का यह वचन- पतितोऽपि द्विजः श्रेष्ठो न च शूद्रो जितेन्द्रियः । अनुवाद करके रख दिया है- पूजिय विप्र सील-गुन-हीना । सूद न गुन-गन-ग्यान-प्रबीना ॥ जिसे कुछ लोग उनका जातीय पक्षपात समझते हैं। पात से उस विरक्त महात्मा से क्या मतलब जो कहता है- लोग कहैं पोचु सो न सोचु न सँकोचु मेरे, ब्याह न बरेखी जाति पाति न चहत है। काक भुशुंडि की जन्मांतरवाली कथा द्वारा गोस्वामीजी ने प्रकट कर दिया है कि लोक-मर्यादा और शिष्टता के उल्लंघन को वे कितना बुरा समझते थे। काक भुशुंडि अपने शूद्र-जन्म की बात कहते हैं- एक बार हरि-मंदिर जपत रहे सिव-नाम । गुरु श्राएउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ॥ गुरु दयालु नहि कछु कहेड उर न रोष लवलेस । अति अघ गुरु अपमानता सहि नहिंसके महेस ॥ मंदिर माम भई नभ-बानी । रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ॥ जद्यपि सव गुरु के नहि क्रोधा। अति कृपालु उर सम्यक बाधा ॥ तदपि साप हठि देइह तोही । नीति-बिरोध सुहाइ न माहीं॥ जो नहिं दंड करौं सठ तोरा । भ्रष्ट होइ सुति-मारग मोरा ॥ श्रुति-प्रतिपादित लोक-नीति और समाज के सुख का विधान करनेवाली शिष्टता के ऐसे भारी समर्थक होकर वे अशिष्ट संप्रदायों
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