पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/६३

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शील- साधना और भक्ति

शील-साधना और भक्ति लोक-मर्यादा-पालन की ओर जनता का ध्यान दिलाने के साथ ही गोस्वामीजी ने अंतःकरण की सामान्य से अधिक उच्चता संपा- दन के लिये शीलोत्कर्ष की साधना का जो अभ्यास-मार्ग मानव. हृदय के बीच से निकाला. वह अत्यत आलोकपूर्ण और आकर्षक है। शील के असामान्य उत्कर्ष को प्रेम और भक्ति का प्रालबन स्थिर करके उन्होंने सदाचार और भक्ति को अन्योन्याश्रित करके दिखा दिया। उन्होंने राम के शील का ऐसा विशद और मर्मस्पर्शी चित्रण किया कि मनुष्य का हृदय उसकी ओर आप से आप आकर्षित हो । ऐसे शील-स्वरूप को देखकर भी जिसका हृदय द्रवीभूत न हो, उसे गोस्वामीजी जड़ समझते हैं। वे कहते हैं- सुनि सीतापति सील सुभाउ । मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ ॥ सिसुपन ते पितु मातु बंधु गुरु सेवक सचिव सखाउ । कहत राम बिधुबदन रिसाहैं सग्नेहु लखेउ न काउ ॥ खेलत संग अनुज बालक नित जुगवत अनट अपाउ । जीति हारि चुचुकारि दुलारत देत दिवावत दाउ ॥ सिला साप-संताप-बिगत भइ दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुए को पछिताउ ।' भवधनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गए ताउ । छमि अपराध छमाइ पाय परि इतो न अनत समाउ । कह्यौ राज बन दियो नारि-बस गरि गलानि गयो राउ । ता कुमातु को मन जोगवत ज्यों निज तनु मरम कुवाउ ।। परसत पावन पाउ।